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मोहनविजयं.
यह रचना भी अत्यधिक लोकप्रिय है। यह भीमसिंह माणेक और अमृतलाल संघवी द्वारा संपादित तथा प्रकाशित है।
चौबीसी-इसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ प्रस्तुत करके इनका विवरण समाप्त कर रहा हूँ । अन्तिम पंक्तियाँ--
वर्धमान मुझ वीनती रे, काई भान जो निशदीस रे,
मोहन कहे मनमंदिर रे, काई वसियो तु विसवा वीश रे।' इसकी भाषा में मुहावरों का प्रयोग यत्रतत्र अच्छा हुआ है जैसे 'विस्वा वीस' का प्रयोग ऊपर की पंक्तियों में द्रष्टव्य है। यह रचना 'चौबीसी वीशी संग्रह' में पृ० ८४ से ११० पर प्रकाशित है।
मोहनविमल-तपागच्छीय मानविमल>रामविमल>ज्ञानविमल के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७५८ कार्तिक शुक्ल ५ शनिवार को देवगढ़ में अपनी रचना वरसिंह कुमार (वावना चंदन) चौपई पूर्ण की। आदि- प्रणमु सारद सामनी, हंसासन कवि मात,
वीणा पुस्तक धारणी, तिहुं भुवने विख्यात । तझने माने तिहं भुवन, सुरनर नागकुमार,
मूरख ने पंडित करै, ज्ञान तणी दातार । उस समय देवगढ़ में रावत प्रताप सिंह का राज्य था, कवि ने लिखा है
रावत श्री प्रताप सी रे, तेहना राज मझार,
कुअर पृथ्वीसींघ वचन थी रे, ओ संबंध रच्यो मै सार। रचनाकाल
संवत सतरे अट्ठावने रे, काती सुदी शनीवार,
पंचमी तिथ कही अ भली रे, देवगढ़ नगर मझार। इसमें कवि ने अपनी गुरुपरम्परा के अन्तर्गत विजयप्रभ, विजयरत्न और मानविमल के पश्चात् रामविमल और अपने गुरु ज्ञानविमल की वन्दना की है।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ. ४२८-४२
और भाग ३ १० १३७७-८६ (प्र०सं) और भाग ५ पृ० १३७-१५७
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