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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह रचना वजीरपुर निवासी आसकरण पारेख के आग्रह पर की गई थी, यथा--
पारेख आसकरण जिनरागी लाला, वजीरपुर नगर नो वासी रे,
तस आग्रहई करी जिन स्तव्या लाला, पातिक गया अति नासी रे, रचनाकाल--
संवत सतर उगणच्यालीसइ लाला, वजीरपुर रह्या चउमासी रे,
सकल संघनइ सुखकरु लाला, थुणिया जिण उल्लासी रे। गुरुपरम्परा--
सकल पंडित सिरसेहरो लाला, लाभविजय गणि गिरुआ रे, तस सीस पंडित राज हो लाला, गंगविजय गुण भरीआ रे । तस पद पंकज मधुकर लाला, मेघविजय कहि कोडी रे, अ चौबीसी तीर्थकरा लाला, द्यो सुष मंगल कोडी रे।'
मेघविजय II-तपागच्छ के विवेकविजय>माणिक्यविजय के शिष्य थे। उन्होंने 'मंगलकलश चौ०' की रचना सं० १७२३ में की; उन्होंने रचनाकाल इस प्रकार बताया है, 'शशि मुनि नयन भुवन', भुवन = तीन, नयन = दो, मुनि = सात और शशि--१, इस प्रकार सं० १७२३ हआ। यह रचना बेलाउल में की गई थी। इसका उद्धरण नहीं मिला। मोहनलाल दलीचंद देसाई अपने ग्रंथ जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १२१५ प्र० सं० पर इसका रचनाकाल सं० १७२१ बताया था, किन्तु संवत् दर्शक शब्दों का अर्थ १७२३ होता है और नवीन संस्करण के संपादक श्री जयंत कोठारी ने भी यही संवत् लिया
मेघविजय III -इस शताब्दी में आस पास ही तीन मेघविजयों का पता चलता है जिन्होंने मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी में रचनाएँ की थी। प्रस्तुत मेघविजय तपागच्छीय हीरविजय सूरि के शिष्य कनकविजय>शीलविजय>कमलविजय>कृपाविजय के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे जैसे देवानंदाभ्युदय सं० १७२७, १ मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३५९
(न०सं०) और भाग ५, पृ० ३१-३२ (प्र०सं०) । २. वही, भाग ४, पृ० ३१९ (प्र०सं०) ।
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