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________________ ३४८ गरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रतियों का मिलान करके ही निश्चित किया जा सकता है। इसका मंगलाचरण देखिए-- प्रणमु अरिहंत देव गुरु निरग्रन्थ दया धरम, भवदधि तारन एव अवर सकल मिथ्यात मणि । वे अत्यन्त विनयपूर्वक कहते हैं व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यो नाहि, भाषा मैं निपुन तुच्छ बुद्धि को प्रकास है । जो लोग परमब्रह्म की आस छोड़ अन्य व्यर्थ मार्गों में भटकते हैं उनकी तुलना वेश्यापुत्र से करता हुआ कवि कहता है-- इह प्रकार जो नर इहैं, इसी भांति सोभा लहै, अजरिज पुत्र वेश्या तणो, कहो बाप कासों कहै । यह रचना कवि ने रावत सालिवाहण, जगदत्त मिश्र और गैंगराज की प्रेरणा से की थी। ज्ञानचिंतामणि --यह अध्यात्म से सम्बन्धित रचना है। इसका रचनाकाल सं० १७२९ माह सुदी ७ है। यह सुभाषितों का संग्रह ग्रंथ है। यह बुरहानपुर में रचित है। विषयों में लिप्त जो व्यक्ति धर्म का मर्म नहीं जानता उसके बारे में कवि का कथन है ---- गुरु का वचन सुण नहिं कान, निसिदिन पाप करै अज्ञान; विषया विष सूं रचि पचि रह्यो, ध्यान धर्म को मरम न लह्यो। चिन्तामणिमानबावनी एक महत्वपूर्ण रचना है। इसके कुछ पद्यों में रहस्यवादी रूपकों की झलक मिलती है, यथा-- धर्मु धर्मु सब जग कहै मर्म ण कोइ लहंत, अलष निरंजन ज्ञानमय इहि तन मध्य रहंत। इसकी भाषा को कवि ने प्राकृताभास बनाने का प्रयास किया है, यथा जिम मोह पटल फट्टइ सयल द्रिष्टि प्रकास फुटत अति श्रीमान कहै मति अग्गलौं हो धर्म पिछाण ण एहु गति । सुगुरु सीष · इसमें केवल ११ पद्य हैं, इसमें मुख्यतया जीव को संसार से विरक्त रहने की प्रेरणा दी गई है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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