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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनकी शब्दयोजना में ध्वनिमूलकता, वर्णमैत्री, आनुप्रासिकता का समावेश है। एक उदाहरण देखिये
किलकंत बेताल काल कज्जल छवि छज्जहिं,
भौं कराल विकराल भाल मदगज जिमि गजहिं । प्रसाद गुण जैनकाव्यों की भाषा का प्रधान गुण है, परन्तु इससे यह अभिप्राय नहीं है कि भाषा के अन्य गुणों-माधुर्य और ओज का उनमें अभाव है। वे भी यथावसर बढ़ने पर मिल जाते हैं। भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसका भावानुकूल होना है। जैन कवियों ने इसकी हमेशा कोशिस की है। यह अलग बात है वे सर्वत्र इस प्रयत्न में कृतकार्य न हो पाये हों। एक सफल कोशिस का नमुना लीजिए
काना कुंडल जगमगै तन सोहै पीतांबर चीर तौ, मुकूट विराज अति भली, बंशी बजावै स्याम सरीस वौ।
रास भणौ श्री नेमिको । पार्श्वपुराण से अनुप्रास का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत है
केला करपट कटहल कैर, कैंथ करौंदा कोंच कनर । किरमाला कंकोल कन्हार, कमरख कंज कदम कचनार ।
शब्दालंकार की चर्चा भाषा सम्पदा के अन्तर्गत होने के कारण किया गया है परन्तु अर्थालंकारों को छोड़ दिया गया है क्योंकि वे काव्य सौष्ठव के अन्तर्गत आते हैं। पर इसका कदापि यह मतलब नहीं है कि जैन काव्यों में अर्थालंकारों का नितांत अभाव है। उनमें जगह जगह पर सुन्दर शब्दालंकारों का उदाहरण उपस्थित है जिनमें उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष आदि का व्यापक प्रयोग किया गया है। इनका उल्लेख काव्यसौष्ठव का संकेत करते समय यथास्थान करना ही उचित होगा न कि भाषा के अन्तर्गत ।
छन्द-जैन कवियों ने नाना प्रललित छन्दों के अलावा चाल और ढाल का प्रयोग किया है जो हिन्दी कवियों की रचनाओं में प्रायः नहीं मिलता। चाल अधिकतर कवियों का प्रिय छन्द रहा है और इसका विधान कथा को द्रुत गति देने के लिए प्रायः किया गया है। कुछ प्रबन्धों में चाल का नाम दिया गया है, इनसे चाल के नाना प्रकारों का संकेत मिलता है। जीवंधर चरित, यशोधर चरित, पार्वपुराण,
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