________________
भावरत्न
आदि
चौबीसी (सं० १७८३ फाल्गुन शुक्ल ३ सोमवार ) आदि जिनेसर दास नी विनती रे, मुझ चित्त आंगणी अ तु पधारि रे, चरण कमल नी भालो चाकरी रे, जीवन करि सफल अवतार रे ।
रचनाकाल --
संवच्छर रत्न प्रवचन माता, भेद संयमना धारो रे,
फागुण सुदि तिथि त्रीज अनूपम, वार नक्षत्रपति सारो रे ।
सुभद्रासती रास (२० ढाल, सं० १७९७, महा शुक्ल ३, शुक्रवार,
पाटण)
आदि -- सकल अतिशये शोभता, श्री शंखेसर पास,
सेवक ने सुरतरु समा, परतक्ष पूरे आस ।
चन्द्र किरण जिम ऊजली जेहनी देहनी कांति, ते सरसति नित समरीओ, भाजे भावटि भ्रांति ।
यह रचना दसवैकालिक की हरिभद्री वृत्ति और अन्य ग्रन्थों से सुभद्रा चरित को एकत्र कर तैयार की गई है । इसमें पूर्णिमा गच्छ के विद्याप्रभसूरि, ललितप्रभ, विनयप्रभ और महिमाप्रभ का वंदन किया गया है ।
ૐ ૨૧
रचनाकाल -- तुरंग अंक तुरंगम भूमी, १७९७ मान संवत्सर धारो, माह शुदि त्रीज जया तिथि जाणो, दिनवार शुक्रे संभारो । शील सुवर्णना भूषण भूषित, गुण रयणें जे सुहायो, सती सुभद्रा नाम सुमंगल, मनवंछित सुख पायो रे । भणतां गुणतां वलीय सांभलता, सती चरित्र रसाला, श्री भावप्रभ सूरि वीसमी ढाले फली मनोरथ माला रे ।
बुद्धिल विमलसती रास ( २ खण्ड सं १७९९ मागसर शुक्ल द्वितीया गुरुवार, पाटण) प्रारम्भ में पार्श्वनाथ की वंदना करता हुआ कवि मंगलाचरण में कहता है।
अहवा पास जिणेसरु नमता पातिक जाय, विधनहरै सुखनै करै, पार्श्वयत्र सदाय | वाणी वाणीमय तनु धरीई हृदय मझार, वांछित अर्थ दीइ सदा, जस अभिनव भंडार ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org