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भगवतीदास
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तब जीव कहै सुनिये सुज्ञान, तुम लायक नाही यह समान, वह मिथ्यापुर को है नरेस, जिह घेरे अपने सकल देस ।'
(पद्य सं० ९६९) मधुविन्दुक चौपाई (सं० १७४०) यह एक आध्यात्मिक रूपक काव्य है । विषयासक्त जीव नाना दुखों को भोगकर विषयादि से जिस मार्ग द्वारा मुक्ति प्राप्त करता है वही इसमें भी बताया गया है, यथा
विषय सुखन के मगन सों, ये दुख होहिं अपार,
तातें विषय विहंडिये, मन वच क्रम निरधार ।२ कथा सरस कुतुहलपूर्ण और अभिव्यक्ति प्रभावशाली है। हिन्दी भाषा सुबोध और प्रसाद गण सम्पन्न है। दोहा चौपाई छन्दों का मुख्यतया प्रयोग किया गया है ।
शत अष्टोत्तरी--यह १०८ छंदों का कवित्त छंदों में बद्ध काव्य है जो ब्रह्मविलास में पृ० ८ से ३२ पर संकलित है। इसमें चेतन, सुबुद्धि और कुबूद्धि जैसे पात्रों के माध्यम से कथा को खड़ी करने का प्रयास किया गया है किन्तु कथानक में शिथिलता और घटनागुम्फन का अभाव प्रायः खटकता है। सूबद्धि द्वारा चेतन को अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय देना ही इसका मुख्य लक्ष्य है । विशेषता यह है कि इसमें एक नारी पात्र पुरुष की पथप्रदर्शिका बताई गई है जो जैन काव्यों में दुर्लभ उदाहरण है। इसकी भाषा प्रौढ़, अलंकार युक्त है। कहीं-कहीं खड़ी बोली के साथ फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हैं। वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है।
पंचेन्द्रिय संवाद -- एक संवादात्मक खण्ड काव्य जैसा है; रचनाकाल सं० १७५० है और यह भी ब्रह्मविलास में संकलित है। इसमें नाक, कान, आँख, जीभ आदि इन्द्रियों का मानवीकरण किया गया है, इनका सरदार मन है जिसे परमात्म तत्त्व की उपलब्धि का संदेश दिया गया है। छंदों में दोहा, सोरठा, धत्ता आदि का प्रयोग बहुलता से किया गया है। गेयता के लिए ढालों जैसे 'रे जिया तो बिन घड़ी रे छ मास,
१. डा० लालचन्द जैन जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
१० ७१-७२। २. वही।
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