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________________ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साहित्य सृजन किया है जिनके उदाहरणों से ग्रंथ का कलेवर बढ़ाना समुचित नहीं है। इनमें उत्तरार्द्ध की रचनायें प्रायः मुक्तक हैं किन्तु इस शती के पूर्वार्द्ध में प्रबन्धों की रचना भी पर्याप्त संख्या में हुई। अधिकतर जैन कवियों ने पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और महापुराण आदि पुराण ग्रंथों के अतिरिक्त प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं के श्रेष्ठ काव्यग्रंथों का भावानुवाद करके उन्हें नवीन ढंग से प्रस्तुत किया। प्रबन्धकाव्यों की चर्चा आगे यथास्थान की जायेगी, इसलिए यहाँ पुनरुक्ति की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार १८वीं (वि०) शती राजनीतिक दृष्टि से मुगल साम्राज्य के चरम उत्कर्ष और पतन की संधिबेला है उसी प्रकार जैनसाहित्य के विकास और ह्रास की संक्रमण सीमा भी है । इसके उत्तरार्द्ध से ह्रास का जो क्रम प्रारंभ हुआ वह १९वीं शती में भी उसी प्रकार चलता रहा जिस प्रकार मुगल साम्राज्य के पतन की कहानी चलती रही। भाषा पहले कहा जा चुका है कि १८वीं शती तक आते-आते विषय परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में परिवर्तन भी परिलक्षित होने लगा था फिर भी बहुतेरे जैन साधु और श्रावक अपनी काव्यरचनाओं में परिपाटीविहिन मरुगुर्जर का प्रयोग कर रहे थे। चुकि भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में प्राकृत का प्रयोग किया था इसलिए उनके अनुयायी १८वीं शती में भी प्राकृताभास मरुगुर्जर का प्रयोग करते थे। यद्यपि इस काल तक अलग-अलग प्रदेशों में गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी का स्वतंत्र और स्पष्ट विकास हो गया था और उनमें काफी साहित्यसृजन भी होने लगा था। दिगम्बर कवि तो पहले से ही अपनी रचनाओं में हिन्दी का प्रयोग करने लगे थे, अनेक श्वेताम्बर कवि भी अब ब्रजभाषा और हिन्दी भाषा का प्रयोग कर रहे थे फिर भी ऐसे जैनसाधु कवियों की संख्या कम नहीं थी जो परंपरित मरुगुर्जर का ही मिश्र प्रयोग कर रहे थे। १८वीं शती में मध्यदेश के बाहर पंजाब से लेकर गुजरात तक काव्यभाषा के रूप में व्रजभाषा का प्रयोग हो रहा था इसलिए जैन कवियों ने भी इसे अपनाया। जैनकवि पहले से ही अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए जनभाषा का प्रयोग करते रहे हैं और ब्रजभाषा इस समय देश के एक विशाल भूभाग की शिष्ट काव्यजनोचित भाषा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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