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पुण्यहर्ष
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दयाधर्म का पालन करने से हरिबल धीवर को भी अपार आनंद की प्राप्ति हुई, इसका प्रारम्भ-
श्री गुरु पय प्रणमी करी, भाव भगति भरपूर, जसु सांनिधि सुख संपजइ, संकट नासइ दूर ।
रचनाकाल बताने से पूर्व कवि ने खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनचंद्र सूरि की भी वंदना की है । रचनाकाल देखिये
इषु गुण मुनि शशि वत्सरें ओ सरसे सहर मजार, ललित कीरति पाठक तणें अ, सुपसाये सुखकार । पुण्यहर्ष पाठक कहे ओ अह संबंध रसाल भणतां गुणतां वांचतां अ, घरि घरि मंगलमाल । '
पुण्यहर्ष ने अपने शिष्य अभयकुशल के साथ मिलकर दिगम्बर पद्मनंदी कृत पंचविंशिका की हिन्दी भाषा में टीका सं० १७२२ में आगरा के जगतराय के लिए लिखी थी अतः आप कुशल पद्यकार के साथ ही गद्य लेखक भी थे । अभयकुशल ने चतुर सोनी के आग्रह पर भर्तृहरिशतक बालावबोध की रचना सं० १७५५ में की थी; यह कुशलता उन्हें अपने योग्य गुरु पुण्यहर्ष से ही प्राप्त हो सकी थी ।
पूर्ण प्रभ-- खरतरगच्छ की कीर्तिरत्न सूरि शाखा के हर्षविशाल 7 हर्षधर्म> साधुमंदिर > विमलरंग 7 लब्धि कल्लोल 7 ललित कीर्ति > पुण्यहर्ष 7 शांति कुशल के आप शिष्य थे । आप समर्थ रचनाकार और विद्वान् साधु थे । आपकी कतिपय प्रमुख रचनाओं का विवरण दिया जा रहा है । 'पुण्यदत्त सुभद्रा चौपइ' (३ खंड ३३ ढाल ६१६ कड़ी) की रचना आपने सं० १७८६ कार्तिक धनतेरस को धरणावस में किया । रचनाकाल से संबंधित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
संवत सतर छयासीओ ओ, कातिग मास उदार, धनतेरस अति दीपती ओ, परब दीवाली सार ।
१, सम्पादक अगरचन्द नाहटा - राजस्थान का जैन साहित्य पृ० २३१ ।
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