SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनके काव्य रूपों की विविधता, रचना कौशल की विलक्षणता और रचना सृजन की विशालता देखकर पाठक चकित होता है। इन्होंने १८-२० वर्ष की अवस्था से ही साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया और आधी शताब्दी तक लिखते रहे। इस अवधि में इन्होंने सैकड़ों श्रेष्ठ रचनायें की। आपके कितने गुणों की चर्चा करू ? आप अच्छे संगीतज्ञ थे, पर सबसे अधिक आप साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त सच्चे साधु थे। आपने तपागच्छ के साधु सत्यविजय की प्रशंसा में 'सत्यविजयरास' लिखा और जब आप बीमार पड़े तो आपकी सेवा सुश्रूषा एक तपागच्छीय साधु वृद्धिविजय ने की थी। इससे यह निवेदन करना चाहता हूँ कि वे मुक्त स्वभाव के सहज और सरस कवि थे। उनके पद मीरा और कबीर की कोटि के हैं जैसे 'मेरा दिल लागा साई तेरा नाम सँ' या 'मेरो एक संदेशो कहियौ। पाइं परू मैं वीरबटाऊ, बिच में विलम न रहियो ।' मेरी इत्यादि। इनके अलावा लाभवर्द्धन, कमलहर्ष, महिमासमुद्र (जिनसमुद्र), लालचंद (लब्धोदय), विनयचंद, लक्ष्मीवल्लभ आदि उल्लेखनीय कवि हो गये हैं। पूर्वार्द्ध के अनेक बड़े कवियों की तुलना में जब हम उत्तरार्द्ध पर दृष्टि डालते हैं तो कवियों की संख्या क्रमशः अल्पतर होती जाती है साथ ही उनके व्यक्तित्व और कृतित्व भी लघुतर लगते हैं। कुछ अपवाद अवश्य हैं। इनमें प्रमुख नाम श्रीमद् देवचंद का है। इनके अलावा यशोवर्द्धन, अमरविजय, रामविजय आदि कुछ गिने चुने नाम ही मिलते हैं। मध्यकाल (१७-१८वीं शती) के अन्तिम चरण में जिस प्रकार भाषा परिवर्तन स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, उसी प्रकार वर्ण्य विषय भी बदलने लगा था। आध्यात्मिकता के स्थान पर भक्तिकाव्य का प्रभाव व्यापक रूप से दिखाई पड़ता है। भक्ति से ओतप्रोत पद, भजन और गीतों की रचना विपुल परिमाण में होने लगी थी। रीतिवाद का यत्किचित् प्रभाव भी यदा-कदा झलक जाता है पर जैन कवि यथाशक्ति वासनात्मक शृङ्गार से बचते रहे बल्कि समय-समय पर उसके विरुद्ध भी चेतावनी देते रहे। फिर भी कुछ शृङ्गारी रचनायें अवश्य हुई और छन्द, काव्यरूप तथा शिल्प पर तो रीतिकालीन प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। अलंकार और छंदशास्त्र पर रचनायें भी हुईं अर्थात् लक्षण और लक्ष्य ग्रंथ लिखे गये पर इनकी मात्रा दाल में नमक के समान स्वादिष्ट है; अरुचिकर या अश्लील नहीं है। हिन्दी रीतिकालीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy