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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नित्यसौभाग्य--आप तपागच्छीय बुद्धि सौभाग्य के शिष्य थे । आपने सं० १७३१ में नन्दबत्रीसी की रचना १६ ढालो में पूर्ण की। इसके प्रारम्भ में ऋषभदेव की वन्दना करता हुआ कवि लिखता
श्री आदीसर आदिकर चौबीसे जिणचन्द,
प्रणमुनितनित पुहसमें, आपै परमाणंद । गुरु परंपरा का स्मरण इन पंक्तियों में है--
प्रवर प्रधान सुपंडित प्रणमौ रे, गीतारथ गुणधाम,
वृद्धि सौभाग्य पयंपइ इण परिरे, श्री सारद सुपसाय । आपकी दूसरी रचना 'पंचाख्यान चौपाई' अथवा कर्मरेखा भाविनीचरित्र सं० १७३१ आसो शुक्ल १३ को पूर्ण हई। इसमें २५ ढाल और ४५३ कड़ी है। इसके प्रारम्भ में सरस्वती की वन्दना करता हुआ कवि कहता है---
सरसती मात सदा मन धरी, कथा कहुं अति आणंद धरी,
कथा सुणे कचपच परिहरो, हृदय कमल मि आणंद धरी । रचनाकाल -
संवत सतर एकत्रीसे जाण (१७३१) शुदि आसो तेरसि बखाण, सारद मात तणि सुपसाय, नितसौभाग्य अहोनिशि गुण गाय ।
इसमें भी गुरु वृद्धिसौभाग्य का वन्दन किया गया है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ आगे प्रस्तुत हैं---
चोपइ ओ मनमोहनी अ, नवनव ढाल रसाल, कण्ठ सुकण्ठे गावतां ओ लागे अधिक रसाल । चोपइ ओ चंगी छइ ओ, सगवटन कसताम, नवरस भाव नवनवा अ, तेणि करी अभिराम । पण्डित वृद्धि सौभाग्य नितसौभाग्य सुजाण । सरसती नि सुपसाइले अ, धरी कवित्त सुध्यान । गुणियण मिलि गायज्यो अ, अरथ सहित अधिकार,
मनरंजसी मोहेलो सुणतां चतुर सुविचार ।' १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २७९-८२
(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० ४४९-४५१ (न० सं०)
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