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ब्रह्मदेवा या देवजी
है एक बार देवा ने चम्पावती नगरी में चौमासा किया, चम्पावती के बड़े देहरे में एक पांडे माली रहते थे। उनमें और जैन पंचायत के बीच मंदिर को लेकर विवाद उठा तो देवा ब्रह्म ने बीच बचाव करते हुए लिखा था--
झगड़ा मै कुछ हाथ न आवै, अरथ बिना ही मार, मान बड़ाई कारणौं जी, बांधै करम अपार जी।
किसका मंदिर किसकी संपति किसका ये घर दार ।
सुपनां को मेलो वरायो जी, झठो सब संसार जी।' इनके पदों और विनतियों में इनकी हार्दिक भक्ति भावना निर्मल ढंग से व्यंजित हुई है । वे अधिकांश भगवान जिनेन्द्र को समर्पित हैं।
आपने परमात्म प्रकाश की भाषा टीका भी की है। इसकी प्रति सं० १७३४ की प्राप्त है अतः इसके आधार पर इनका रचनाकाल १८वीं शती का पूर्वार्द्ध निश्चित किया गया है।
देवीचंद इनका उल्लेख मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने १८वीं शताब्दी में किया है और इनकी रचना 'राजसिंह चौपई' का रचनाकाल सं० १७२७ बताया है । लेकिन जैन गुर्जर कवियो के ही भाग ३ पृष्ठ १२८ पर इसी रचना का रचनाकाल १८२७ लिखा है और १९वीं शती में देवीचन्द का पुनः नामोल्लेख किया है। दोनों स्थानों पर रचना का उद्धरण और अन्य विवरण नहीं दिया है। वहीं पृष्ठ ३४९ पर भी सं० १८२७ लिखा है। इसलिए इसका रचनाकाल शंकास्पद है । रचनाकाल सम्बन्धी जो पंक्तियाँ हैं उनसे यह १९वीं शती की ही रचना लगती है, यथा ...
नगर मेडता ठांस मोटो, अठार से सत बीस में,
मास कातिक शुकल पंचमी भोमवार कर निरगमें ।' १. डॉ० प्रेम सागर जैन -हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० २९६.२९७
पर उद्धन । २. मोहनलाल दली वन्द देसाई -जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १२६०
और १५२३ (प्र०सं०)। ३. वही भाग ३ पृ० १२९ प्र०सं० ।
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