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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मंगल कलश कुमार नो रास रचुं मनरंग;
देज्यो वचन सोहामणु मुझ मन बहु उछरंग। द्वितीय खण्ड के अंत में रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है--
संवत सत्तरे जाणज्ये सा०, वरस ते उगणपच्चास तो;
आसो खुदि पूनम दिने सा०, ओ मे कीधो रास तो । इसमें भी उपरोक्त गुरु परंपरा बताई गई है। कवि ने अपना नाम दीप्तिविजय लिखा है और यह कृति कवि ने अपने शिष्य धीरविजय के पठनार्थ लिखी है--
गुरु नामि सुख उपजे, मति बुधि सधली आवे रे, दीप्तिविजय सुख कारणि रास रच्यो सुभभावि रे । निज सीस धीरविजय तणुं वाचवानुं मन जाणी रे,
रास रच्यो रलीयामणो मनमांहि ऊलट आणी रे । यह प्रकाशित है, प्रकाशक हैं भीमशी माणेक । इसकी अंतिम पंक्तियों में रचनाकाल पुनः इस प्रकार कहा गया है
संवत सतरइ जांणज्यो, बरस ने उगण पंचासो रे,
भणे गुणे जे सांभलइ, कवि दीप्ति नी फलज्यो आस ।' तीसरी रचना शंखेश्वर जी सलोको का विवरण इनके शिष्य देवविजय के साथ आगे दिया जायेगा।
दीप सौभाग्य--आप तपागच्छीय राजसागर सूरि की परंपरा में माणिक्य सौभाग्य के प्रशिष्य एवं चतुरसौभाग्य के शिष्य थे। आपने 'चित्रसेन पद्मावती चौपई' (३१ ढाल ६०७ कड़ी) सं० १७३९ भाद्र कृष्ण ९, मंगलवार को नगीनानगर में लिखा, इसका आदि देखिये
प्रणमुं प्रेमे पास जिन श्री शंखेश्वर देव,
सुरनर वर किन्नर सदा, जेहनी सारें सेव । इसमें चित्रसेन पद्मावती की कथा का दृष्टान्त देकर शील का महत्व समझाया गया है । कवि कहता है--
दानादिक सहु सारिखा, पिण उत्तम शील विशेष;
परणीजें ते गाइई, ऊखाणों देख । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कविमो भाग २ पृ० ४१५-४१७
और भाग ३ पृ० १३६५ (प्र०सं०) !
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