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________________ दानविजय २१९ यही हैं यह कहना कठिन है। दान छाप होने से इन्हीं की रचना समझा जाता है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-- दोश न दीजे देव ने रे करम वीरवणा होय; मुनि दान कहे जग जीवड़ा रे धरम सदा सुखजोय रे।' १४ गुण स्वाध्याय--(सं० १७४४ धनतेरस, रविवार) का आदि ----- चन्द्रकला जिम निर्मली भगवती जिनमुख वासः प्रणमी सरसति सामिणी, देज्यो वचन विलास । गुण ढांणा चौदस तणो विवरी कहिसुं विचार, सावधान थइ सांभलो, भविगण नि उपगार । रचनाकाल--संवत सत्तर चोमालीस अश्विनी धन्नतेरस दिने सूर्यवारि, चउद गुण ढाणनी बेलडी नीपनी, काउसग ध्यान वि संभारि । पडिकमण चौपइ सं० १७३० आदि-- श्री तेजविजय कविपद अणसुरी पडिकमणानी सही खपकरी; नाम थापना द्रव्यनि भाव, अनुपऊँग उपयोगी भाव । रचनाकाल-- संवत् १७ संजम मोहनीय ढाय ३०, श्री विजयदान सूरीसर राय; पंडित तेजविजय नो सीस, धन विजय कवियण सुजगीस । चौबीसी-आदि--अकलपुरुष आदीसरु, जे जंगम सुरतरु सार, वाल्हा । अंत--दान विजय प्रभु वीर जी रे, समरूं ऊंगत सूर । दानविजय --आप तपागच्छीय विजयराज के शिष्य थे। इन्होंने दानदीपिका नामक कल्पसूत्र की टीका (संस्कृत) अपने शिष्य दर्शनविजय के लिए लिखी। अष्टापद स्तव और ललितांगरास इनकी मरुगुर्जर की रचनायें हैं। कल्याणकस्तव और चौबीस जिन स्तुति भी इन्हीं की कृतियाँ समझी जाती हैं, अतः आगे इनका परिचय दिया जा रहा है। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई --जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० ४०३-४०४ (न०सं०)। २. वही भाग २ पृ० ४४५-४४७; भाग ३ पृ० १३८८-९२ (प्र०सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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