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________________ २१८ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दूसरे दानविजय के साथ किया जायेगा। पहले प्रथम दानविजय की रचनाओं का संक्षिप्त विवरण-उद्धरण दिया जा रहा है । सप्तभंगी गभित वीर जिनस्तव (सं० १७२७ वैशाख) का आदि-- सिद्ध सवे प्रणमी करी परमानंद स्वरूप, परमेष्ठी पांचे सदानिहंश्चेसु अविरूप । रचनाकाल--इम वीर जिणवर विश्वहितकर गाइउ जन शंकरो, वैशाख मासि अचल लोचन संयम भेद संवत्सरो। गुरु--श्री तपगछ राजा बहुत दिवाजा विजयराज सूरीसरो, तस राजे थुणिऊं वीर सामी दानविजय कवि सुखकरो।' चैत्री पूर्णिमा स्तव अथवा देववंदन का आदि नाभि नरेसर वंश चंद मरु देवी माता, सुररमणी जस जास गाइ अवदाता। Xxx आदीसर प्रभुतणा प्रणमत सुरासुर वृंद; मन मोज्ज मुख देखता दोन मिटे दुख द्वन्द । अंत-चैत्री ऊछव जे करे ते लहइ भवदुख भंग रे, अ; श्री विजयराज सूरीसरु दान अधिक उछरंग रे। मौन अकादशी देववंदन के संबंध में भी जयंत कोठारी शंका करते हैं किन्तु स्पष्ट आधार न पाकर इसका कर्ता इन्हें मानते हैं। इसकी प्रारंभिक पंक्ति यह है-- सकल नगर सिणगार गजपुरवर नयर; राय सुदर्शन तास नारि देवी जिसि अपछर । अंत---श्री न्यान कल्याण इणि परिकरता भव भय संकट भाजे, ते नमि जिनवर प्रणमों प्रेमें, दान सकल सुख काजे । यह रचना देववंदन माला और चैत्य आदि संज्झाय भाग ३ में प्रकाशित है। कर्म संज्झाय (९ कड़ी) इस छोटी रचना के कर्ता भी १. मोहनलाल दलीचंद देसाई.----जैन गुर्जर कवियो भाग ४ पृ० ३७४ (न० सं०)। २. वही भाग ४ पृ० ३७४-३७७ (न० सं०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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