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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दलपति--आपकी एक रचना 'बारमास' मरुगुर्जर में उपलब्ध है जिसकी भाषा में मरु का प्राधान्य है। यह जैन रचनाओं की भाँति डालों में निबद्ध है और इसके प्रतिलिपिकार लब्धिसागर जैन हैं, किंतु यह कवि जैनेतर है। बारमास का प्रारंभ इन पंक्तियों से हुआ है
तात चरण प्रणमी करी, आयो पदमण पास सीख दीये ससनेह सं, पाठवि प्रम प्रगास । सोल वरस री कामिनी, वीस वरस प्रीय वेश,
घर घरणी मूंकी करी क्युं चलो परदेश । इसमें बारह महीनों में विरहिणी का विरह भाव वर्णित है । कार्तिक का विरह वर्णन देखिए---
काती विरह क वाण रा ताय उर लागो तीर,
प्रीउ जिण रा परदेश में, जकड़ी विरह जंजीर । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ अनलिखित हैं ----
सीख करी ससनेह सुं पीउ चाल्या परदेश,
ढाल भणी अ तीसरी, दलपति वयण विशेष । यह विप्रलंभ प्रधान सरस रचना है।
दयासार--आप जिनचंद्र सूरि के प्रशिष्य और धर्मकीर्ति के शिष्य थे। आपने आराम शोभा चौपइ (सं० १७०४, मुलतान) और आरामनंदन पद्मावती चौपइ, शीलवती रास (सं० १७०५ फतहपुर), अमरसेन वयरसेन चौपइ (सं० १७०६, सीतपुर, विजयादसमी ), और इलापुत्र चौपइ (सं० १७१० सुहावानगर) की रचना की। सिन्धप्रांत में इनका निवास अधिक हुआ।
कवि ने अपनी रचनाओं में अपना नाम दयासार ही लिखा है किन्तु मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने दयासागर लिखा है। प्रमाण स्वरूप इलापुत्र चौपइ से उदाहरण प्रस्तुत हैं-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ. १२७१
(प्र०सं०)। २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पु. १०७ ।
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