SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहासे पट्टधर हुए तब नाम उदयसागर पड़ा। एक अन्य उदयसागर सूरि भी हो गये हैं जो विजयगच्छीय विजयमुनि7 धरमदास7 खेमराज7 विमलसागर सूरि के शिष्य थे। इन्होंने 'मगसी पार्श्वनाथ स्तव' (५९ कड़ी) लिखा है। (देखिये जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ५८८ और भाग ५ पृ. ३७१ नवीन संस्करण) प्रस्तुत ज्ञानसागर उर्फ उदयसागर कल्याण जी की पत्नी जयवंती की कुक्षि से सं० १७६३ में पैदा हुए थे। इनकी दीक्षा १७७७, आचार्य पद १७९७ में और स्वर्गवास सं० १८२६ में हुआ। अर्थात् ये १८वीं १९ विक्रमीय के रचनाकार साधु थे। इन्होंने १८०४ में स्नात्र पंचाशिका नामक (संस्कृत) ग्रंथ लिखा। इनकी १८वीं शती की कुछ मरुगुर्जर कृतियाँ प्राप्त हैं जिनमें समकित नी संज्झाय, भावप्रकाश संज्झाय गुणवर्मा रास और कल्याणसागर सूरिरास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, इनका विवरण दिया जा रहा है। इनके अलावा स्थूलिभद्र संज्झाय, चौत्रीश अतिशय नो छंद, शीयल संज्झाय, षडावश्यक संज्झाय आदि अनेक छोटी रचनायें भी उपलब्ध हैं। प्रायः सभी रचनाएँ प्रकाशित है। इन्होंने गद्य में लघुक्षेत्र समास बालावबोध भी लिखा है। समकित संज्झाय (५ ढाल सं० १७८६, वुरहानपुर) कलश-इम स्तव्या श्री जिन वीर स्वामी, समकित रूप कही करी, बुरहानपुर चौमास रसगां (रसांग) मुनि शशि वर करी। श्री अंचल गछपति तेज दिनपति, श्री विद्यासागर सूरी, तस शिष्य प्रणमें ज्ञानसागर दीजिइं समकित वरू । यह विधिपक्ष जिनपूजा स्तवन संग्रह में प्रकाशित है। भावप्रकाश संज्झाय (९ ढाल सं० १७८७ आसो मास गुरुवार, बुरहानपुर) आदि-श्री सद्गुरु ना प्रणमी पाय, सरस्वति स्वामिनी समरी माय । ___छओ भावनों कहुं सुविचार, अनुयोगद्वार तणे अनुसार । यह रचना कस्तूरचन्द के आग्रह पर लिखी गई और श्री जिनपूजा स्तवन संग्रह में प्रकाशित है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है-- सत्तर नयभद्द आश्विन सिद्धियोग गुरुवासरे, . श्री सूरि विद्या तणो विजयी ज्ञानसागर सुखकरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy