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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्त ---ढाल अ पूरी थइ उगणतालीसमी, मुनिपति रासे चित्त रमीरे ।
गजविजय कहें मुनिपति मुनिजिम, मन विरमज अमेरे ।'
- गुणकीति - आपकी एक रचना चतुर्विशति छप्पय (सं० १७७७ आषाढ वदी १४) उपलब्ध है जिसका आदि और अन्त आगे दिया जा रहा है। आदि --- आदि अन्त जिनदेव, सेव सुरनर तुझ करता,
जय जय ज्ञान पवित्र, नाम लेतहि अघ हरता । गुरु निरग्रन्थ प्रणम्य करि, जिन चउवीसो मन धरउं,
गुनकीर्ति इम उच्चरइ, सुभ वसाइ रु देला तरउ । अन्त- श्री मूलसंघ विख्यात गछ, सरसुतिय बखानउ,
तिहि महि जिन चउवीस, एह शिक्षा मन जानउ । पराय छइ प्रसादु, उत्तंग मूलचंद प्रभु जानी,
साहिजहाँ पति साहि, राजु दिल्ली पति आनी। यह रचना शाहजहाँ के शासनकाल की है। रचनाकाल इस प्रकार कहा है
सतरह सइ रु सतोत्तरा वदि असाढ़ चउदसि करना,
गुनकोति इम उच्चरइ, सकल संघ जिनवर सरना । इनकी एक दूसरी रचना 'शीलरास'३ का भी उल्लेख है किन्तु इसका रचनाकाल सं० १७१३ बताया गया है। दोनों रचनाओं में काफी बड़ा अन्तराल होने के कारण आशंका होती है कि ये गुणकीर्ति और चतुर्विशति छप्पय के कर्ता गुणकीर्ति एक ही हैं अथवा दो।
गुणविलास-आप खरतरगच्छ के साधु सिद्धिवर्द्धन के शिष्य थे । इनका जन्मनाम गोकुलचन्द था। इन्होंने सं० १७९२ में 'चौबीसी' की १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १४४३-४५
(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० ३०२ ३०४ (न० सं०)। २. कस्तूरचन्द कासलीवाल, अनूपचन्द--राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ
सूची भाग ४ पृ० ५३ व ६०१। ३. वही भाग ४ पृ० ५६ ।
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