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क्षेमविजय
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प्रह उठी नमीयें सदा, शासननाथ सधीर, त्रिशलानन्दन जगतिलो वरसुखदायक वीर । पंचमअंगे प्रगट छे करु निगोद विचार,
सद्दवहतां सूधे मने, सही हुवे सुखकार । इसके अन्त का 'कलश' आगे प्रस्तुत है-- वीर जिणवर सयल सुखकर सत्यपुर वर सोहले। सेवे सुरासुर दीप्तिभासुर भविक जन मन मोहो । निज गुणे गजित कुमति वजित रत्न समुद्र सूरीस। मन सुद्ध गावे सही पावे, क्षमा प्रमोद जगीस ओ।'
क्षमासागर -जिनधर्म सूरि के समय में इन्होंने 'शत्रुजय बृहत्सव' (२ ढाल) को सं० १७३१ चैत्रशुक्ल ५ को पूर्ण किया। इसका प्रारम्भ इस ढाल से हुआ है
"हठीला वयरी नी" दाणा दीही मनमइ हुंती रे, आत करेवा खांत रे, डुगर भलो। देस सोरठ मइ शोभतउ रे लाल ।
सोरठ दे स सोहामणउ रे, तीरथ जिहां बहुभांत रे, डुगर भलो। रचनाकाल--संवत सतर इकत्रीस मै बलि चैत्री हो सुदि पंचमी जाण ।
श्री जिनधर्म सूरीसरु, जिण भेट्या हो सकलइ मंडाण । अहम्मदाबाद खंभाइती, विमला दे ही आसबाइ खास ।
संघ साथइ इम प्रेम सु, ववराव्या हो छठम नइ उल्लास । अन्त - मन नी आस्या सहू फली, रंगइ गाया हो शेव्रुज गिरराय से ।
क्षमासागर मुनिवर भणइ, बलि होज्यो सेवतो तुव पाय से ।
क्षेम विजय - तपागच्छीय देवविजय के शिष्य शांतिविजय के ये शिष्य थे । इन्होंने कल्पसूत्र बालावबोध सं० १७०७ वैशाख शुक्ल गुरुवार को महेमदाबाद में लिखा । प्रारम्भ
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--- जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १५२७-२८ - प्र० सं० भाग ५ पृ० ३७२ (न० सं०)। २. वही भाग २ पृ० २८३ और भाग ४ पृ० ४४५ ।
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