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कुशलसागर अथवा केशवदास
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नहीं हो सका । यह रचनाओं का परीक्षण करने के पश्चात् ही कुछ कहा जा सकता है । '
कुशलसागर प्रथवा केशवदास - ये खरतरगच्छीय जिन भद्रसूरि शाखा के लावण्यरत्न के शिष्य थे । इनका जन्म नाम केशवदास था, इस नाम से भी इनकी रचनाएँ मिलती हैं । इन्होंने सं १७३६ में केशव बावनी; सं० १७४५ में वीरभाण उदयभाण रास (६५ ढाल नवानगर ) की रचना की। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने भी कुशलसागर (केशव) को खरतरगच्छीय जिनभद्र शाखा के साधुकीर्ति > महिमसुंदर>नयमेरु > लावण्यरत्न का शिष्य बताया है ।
केशवदास बावनी या मातृका बावनी (सं० १७३६ श्रावण शुक्ल ५ मंगलवार)
आदि-ओङ्कार सदा सुख देउ तही नित सेउत वंछितइच्छित पावै । बाउन अक्षर मांहि शिरोमणि योगीसर ही इस ध्यावै । ध्यान में ग्यान में वेद पुराण में कीरति जाकी सबै मनभावै । केशवदास कुं दीजिइं दोलत भाव सौं साहिब के गुण भावे । अंत -- बाउन अक्षर जोर करी भया, गाउ पन्यास ही मन भावें । सतर सो छत्रीस को साउन सुदि पांच भृगुवार कहावे । सुख सोभागनी को तितको हुवे बाउन अक्षर जो गुन गावे । लावनरत्न गुरु सुपसाउलो केशवदास सदा सुख पावे ।
इस प्रकार केशवदास कुशलसागर ) ने अपनी रचना में लावण्यरत्न को अपना गुरु बताया है ।
वीरभाण उदयभाण रास (सं० १७४५ विजयदसमी सोमवार, नवानगर )
आदि सद्गुरु जी सानिध करो, श्री जिनकुशल सूरींद | परना पूरण तुं प्रभु, परतिख सुरतरु कंद |
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई- जैन गुर्जर कविओ भाग ५ पृ० १९४ ( न० सं० ) ।
२. अगरचन्द नाहटा - - परंपरा पृ० १०६ ।
३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कविओ, भाग २ १० ३५४
( प्र०सं० ) और भाग ५ पृ० २१ ( न० सं० ) ।
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