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उपसंहार
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जैन रचनाकारों ने अपनी कृतियों के माध्यम से केवल धर्म-दर्शन का ही आख्यान नहीं किया अपितु व्याकरण, वैद्यक, गणित, छन्द, अलंकार, ज्योतिष आदि नाना विषयों पर न केवल पद्यबद्ध बल्कि गद्यबद्ध साहित्य भी प्रभूत परिमाण में रचा है । हिन्दी जैन साहित्य में १६वीं १७वीं शती (विक्रमीय) से ही प्रचुर मात्रा में गद्य साहित्य बालावबोध, टब्बा, वृत्ति, टीका आदि नाना रूपों में उपलब्ध हैं। गद्य साहित्य का विवरण प्रथम खण्ड में तो स्वतन्त्र अध्याय में दे दिया गया है किन्तु इस खण्ड में ( १७वीं शती) गद्य की रचनाओं का परिचय पद्य रचनाओं के साथ ही दिए गये हैं । कुछ छूटी रचनायें गद्य - साहित्य के अन्तर्गत तीसरे अध्याय में दे दी गई हैं । हिन्दी गद्य साहित्य के अनेक प्राचीन रूप और विधायें इसमें उपलब्ध हैं जिनके आधार पर हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास काफी प्राचीन सिद्ध होता है और उसके पुनः लेखन की अपेक्षा है ।
जैन साहित्यकारों ने यथा राजा तथा प्रजा के प्रचलित विचारों को नकारते हुए अपनी रचनाओं को तत्कालीन मुगल सम्राटों, सामन्तों की विलासी मनोवृत्ति से मुक्त रखा जबकि अन्य भाषाओं के साहित्य तथा सम्बद्ध कलाओं पर तत्कालीन विलासी संस्कृति का गहरा प्रभाव सर्वत्र देखा जा सकता है । यद्यपि जैनधर्म इस काल में मुख्यरूप से राजस्थान और गुजरात के वैश्यवर्ग के अलावा अन्य स्थानों में अधिक प्रचलित नहीं था किन्तु इनके श्रावक और साधु अपनी जीवनचर्या तथा रचनाओं में आचार-विचार की पवित्रता और धार्मिक निष्ठा अक्षुण्ण रखने में सक्षम रहे । इस काल का साहित्य प्रायः अध्यात्म, भक्ति, धर्म दर्शन से ओतप्रोत है । यह युब १७- १८वीं शताब्दी (विक्रम) हिन्दी जैन साहित्य का श्रेष्ठ युग है, स्वर्णकाल है । मैंने प्रस्ताव किया है कि इसे हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास का भक्तिकाल कहा जाना चाहिए ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने १०वीं से १८वीं शताब्दी तक की अवधि को भारतीय इतिहास का मध्यकाल माना है । उनका कथन है कि १०वीं शताब्दी के आस-पास आते-आते देश की धर्मसाधना बिलकुल नये रूप में प्रकट होती है तथा यहाँ से भारतीय मनीषा के उत्तरोत्तर संकोचन का आरम्भ होता है । यह अवस्था १८वीं शताब्दी तक चलती रही । '
१. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी - मध्यकालीन धर्मसाधना पृ० ९-१०
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