________________
. मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास से परिवर्तित किया जा सकता है, इसीलिए अपभ्रंश के अनेक पद्य मरुगुर्जर में मिल जाते हैं जैसे :
“सो सिवसंकरु विणहु सो, सो रुद्दवि सो बुद्धा । सो जिणु ईसरु वंभु सो, सो अणंतु सो सिद्धा।"
(योगसार दो० १० ) इसका रूपान्तर देखिये :
"सो शिवशंकर विष्णु सो, सो रुद्रद सो बुद्ध ।
सो जिन ईश्वर ब्रह्म सो, सो अनन्त सो सिद्ध ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से भी यदि विचार किया जाय तो हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती के समीप जितनी अपभ्रंश है उतनी संस्कृत नहीं है। तत्सम शब्दों का प्रयोग अवश्य इनमें अधिक पाया जाता है अन्यथा पद रचना, ध्वनियाँ और उच्चारण आदि अपभ्रंश के अधिक समीप लगते हैं । इसलिए मरुगुर्जर से अपभ्रंश का नाता तोड़ना संभव नहीं है। आ० भा० आ० भाषाओं और उनके साहित्य का क्रमिक विकास देखने के लिए मरुगुर्जर और अपभ्रंश की उपेक्षा घातक है। इसे स्पष्ट करने के लिए हम मरुगुर्जर पर अपभ्रंश का प्रभाव संक्षेप में आगे प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
गरुगुर्जर साहित्य पर अपभ्रश का प्रभाव भाषा-पिछले प्रकरण में अपभ्रंश का जो विवरण दिया गया है उसके आधार पर अब सुविधापूर्वक अपभ्रंश का मरुगुर्जर भाषा और साहित्य पर प्रभाव स्पष्ट किया जा सकेगा। अपभ्रंश और मरुगुर्जर भाषायें कई सौ सालों तक समानान्तर चलती रही हैं, फलतः उत्तरकालीन अपभ्रंश रचनायें मरुगुर्जर साहित्य से उसी प्रकार प्रभावित हुईं जिस प्रकार प्रारम्भिक मरुगुर्जर साहित्य अपभ्रंश से प्रभावित हुआ था। यहाँ हम मरुगुर्जर पर अपभ्रंश के प्रभाव को ही प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अपभ्रंश ने मरुगुर्जर को अनेक प्रकार से प्रभावित एवं सम्पन्न किया है। अपभ्रंश के शब्द समूह से मरुगुर्जर भाषा का भंडार सम्पन्न हुआ, इस प्रकार अपभ्रंश की मरुगुर्जर को प्रथम देन भाषा की दृष्टि से प्रमाणित होती है। जैन कवि धर्मप्रचार के लिए अपभ्रंश को पूज्यभाषा मानकर परिनिष्ठित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org