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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर पड़ता है। इसलिए हमें अपभ्रंश और आ० भा० आ० भाषाओं के बीच की कड़ी के रूप में मरुगुर्जर का अध्ययन विशेष सावधानी पूर्वक करना ही चाहिए अन्यथा बीच की कड़ी के अभाव में भाषा का क्रमविकास समझना असंभव हो जायेगा। हम यह स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश में आ० भा० आ० भाषाओं के व्याकरण-रूप कम मिलते हैं उदाहरणार्थ हिन्दी वर्तमान कालिक क्रिया 'है' या अहै, 'अहइ' आदि रूपों का अपभ्रंश में अभाव है। इसी प्रकार भूतकालिक 'था' और भविष्यकालिक 'गा' का भी वहाँ पता कहीं चलता। सर्वनाम 'मैं' का 'मइं' रूप अवश्य मिलता है। इस प्रकार मुख्य क्रिया रूपों और परसर्ग आदि का अभाव होने के कारण अपभ्रंश से हिन्दी और राजस्थानी का व्याकरण के आधार पर सीधा विकासक्रम सिद्ध करना कठिन है फिर भी जब तक प्रादेशिक जन बोलियों का, जिनके आधार पर आ० भा० आ० भाषाओं का विकास हुआ होगा, निश्चित पता नहीं चल जाता तब तक हमारे पास उस कमी की पूर्ति के लिए मरुगुर्जर का साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैनाचार्यों ने अपने साहित्य में यथासंभव साहित्यिक रूढ़ भाषा के स्थान पर भरसक जनप्रचलित सरल भाषा का ही प्रयोग किया है और इसीलिए मरुगुर्जर जैन साहित्य में आ० भा० आ० भाषाओं के लक्षण अधिक पाये जाते हैं और यह प्रमाणित होता है कि अपभ्रंश तथा आ० भा० आ० भाषाओं के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मरुगुर्जर भाषा और उसका साहित्य ही है। अपभ्रंश से सीधे मरुगर्जर को और मरुगर्जर के माध्यम से राजस्थानी, गुजराती आदि आ० भाषाओं को काव्य रूप, शब्दसम्पदा और अन्य अनेक उपहार मिले हैं। अतः मरुगर्जर भाषा साहित्य की जानकारी वर्तमान भाषाओं के स्वरूप और साहित्य को समझने के लिए आवश्यक है। भाषा एवं साहित्य के अतिरिक्त सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाय तो भी मरुगुर्जर का भाषा साहित्य अध्येताओं के लिए अपरिहार्य है क्योंकि प्रायः सभी कृतियाँ किसी श्रद्धालु के आग्रह पर लिखी होने के कारण उनमें उन राजपुरुषों, श्रेष्ठियों, सामन्तों का ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध है। जैन लेखक प्रायः अपनी रचनाओं के अन्त में रचनाकाल अवश्य देते हैं इसलिए भी ऐतिहासिक कालक्रम बैठाने में इनसे बड़ी सहूलियत मिलती है । यह साहित्य मध्ययुगीन चिन्ताधारा को अपने में समेटे हुए है और भारतीय सामाजिक संरचना को समझने की अमूल्य सामग्री उपलब्ध कराता है इसलिए इसका अध्ययन संस्कृति की जानकारी के लिए आवश्यक है।
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