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________________ मरु-गुर्जर की निरुक्ति ६७ बौद्ध धर्म तेजी से मुख्य भूमि को छोड़कर पूर्व की ओर खिसकता हुआ बंगाल के रास्ते नेपाल, तिब्बत होता चीन, जापान की तरफ चला गया। बौद्ध धर्म अपने संघचर्या की कमजोरियों का स्वतः शिकार हो गया। मध्यदेश के अधिकतर राजा हिन्दू धर्म के शैवमत को विशेष रूप से अंगीकार करने लगे थे । आये दिन की लड़ाइयों के कारण इस युग के राजाओं को युद्ध का प्रोत्साहन देने वाला हर हर महादेव का जुझारू नारा अधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ। अहिंसावादी बौद्ध धर्म उस वातावरण के लिए अनुपयुक्त सिद्ध हुआ । इसलिए बौद्ध धर्म को मध्यदेश में राजाश्रय नहीं मिल सका। जैन धर्म-यह धर्म बौद्ध मत से काफी अच्छी स्थिति में था। प्रजा में इनकी संख्या बढ़ रही थी। छठी शताब्दी में जैन आगमों का संग्रह हआ। जैन आचार्यों ने न केवल उत्तम रचनायें कीं बल्कि उनकी रक्षा के लिए निरन्तर सचेष्ट रहे। इनका आचार, नियम-संयम कठोर था। अतः बौद्धों के संघ जीवन की कमजोरियां जैन संघ में नहीं फटकने पाईं। धार्मिक, सैद्धान्तिक और दार्शनिक विश्वासों के प्रति इनकी जागरुकता, उन्हें संजोये रखने का दढ संकल्प, साहित्यिक अभिरुचि और कठोर आचार तथा संयम के कारण जैनधर्म का प्रभाव निरन्तर बढ़ता गया। यह अवश्य उल्लेखनीय है कि इनका प्रभाव सीमित क्षेत्र और जनता के विशेष वर्ग में ही रहा । परमारों के समय मालवा में, चौलुक्यों के समय गुजरात और मालवा में तथा चाहमानों के समय राजपूताने से मालवा और गुजरात के समस्त पश्चिमी प्रान्तों में इस धर्म की शाखा-प्रशाखायें खूब फैलीं। जैन धर्म वैश्य-व्यापारियों में अधिक लोकप्रिय हुआ । मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में उनके बड़े-बड़े केन्द्र स्थापित हुए । अहिंसक वृत्ति के कारण सम्पन्न व्यापारी वैश्यों ने इसे न केवल स्वयम् अपनाया अपितु अपने धन के बल पर जनप्रिय भी बनाया । राष्ट्रकूटों में कई शासक और उनके मन्त्री तथा अधिकारी जैन धर्मावलम्बी थे जिन्होंने अपने धर्म के साथ जैन दर्शन, कला और साहित्य को संरक्षण प्रदान किया । आगे चलकर यह धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर नामक सम्प्रदायों में बँट गया किन्तु इसकी प्रगति बराबर बनी रही क्योंकि कुछ राजवंशों द्वारा उन्हें पर्याप्त प्रश्रय प्राप्त हो गया था । अतः उन राजवंशों की धार्मिक नीति पर थोड़ा अधिक विचार करना अपेक्षित है। प्रमुख राजनंशों की धार्मिक नीति-राजस्थान, मालवा, गुजरात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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