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मरु-गुर्जर की निरुक्ति थी इस अवधि में कश्मीर में कर्कोटक, उत्पल और लोहर वंश का शासन चलता रहा । सिन्ध और मुलतान में राय और शाही वंश ने कब्जा जमा रखा था। बाद में सिन्ध पर मु० बिन कासिम ने आक्रमण करके वहां के राजा दाहर को परास्त कर दिया और वहां मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया । मुल्तान और पंजाब पर हिन्दू शाही राजवंश महमूद गजनवी के, आक्रमण के समय तक (सन् १००१) चलता रहा।
पूर्व में गौड़राज शशांक हर्ष का समकालीत शक्तिशाली शासक था। उसकी मृत्यु के बाद बंगाल पर पाल और तत्पश्चात् सेन वंश का शासन मुसलमानी शासन के पूर्व तक चलता रहा। पाल शासकों के समय बंगाल मे बौद्ध धर्म का दबाव अधिक रहा किन्तु सेनवंशीय नरेशों ने हिन्दू धर्म का समर्थन किया, फलतः बौद्ध धर्म धीरे-धीरे बंगाल से बढ़कर नेपालतिब्बत के रास्ते देश से बाहर चला गया। उड़ीसा में शैलोद्भववंशीय और भंजवशीय राजाओं का स्थानीय शासन रहा । कामरूप में हर्ष का मित्र और समकालीन प्रभावशाली राजा भास्कर वर्मा था। उसके बाद असम का राजनीतिक इतिहास भी असम ही था। इस युग में दक्षिण के देवगिरि में यादवों का और सुदूर दक्षिण में पल्लव, चोल तथा पाण्ड्य वंश का शासन रहा । सारांश यह कि इस युग में समचे भारत में विशेषतया उत्तर भारत मे खण्ड राज्यों की संख्या बढ़ती जा रही थी। देश खण्डित और विभाजित हो गया; राजा परस्पर युद्ध और विलासिता में डूब गये, प्रजा के उत्पीड़न की हद हो गई।
आर्थिक स्थिति-इस राजनीतिक परिस्थिति का देश की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा। सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था अवरुद्ध हो गई थी। ग्रामदान की प्रक्रिया के कारण छोटे-छोटे राज्यों में भी राजसत्ता ऐसे स्थानों में प्रभावशून्य हो गई थी, क्योंकि पुरोहितों, अधिकारियों और सैनिक कर्मचारियों तथा अन्य सुविधा प्राप्त लोगों को अपने-अपने ग्राम या क्षेत्र में प्रशासकीय तथा आर्थिक स्वायत्तता प्राप्त हो गई थी; और ये प्रखण्ड प्रशासकीय तथा वित्तीय मामलों में प्राय. स्वतन्त्र थे। इनका केन्द्रीय शासन से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता था। इसलिए सामन्त तथा उपसामन्त प्रथा के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र इकाइयों का उदय हुआ जो स्वयम् गतिहीन एवं अवरुद्ध थीं। साराश यह कि आर्थिक क्षेत्र में भी विघटन एवं गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
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