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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास निर्वेद परम्परित ढंग पर प्राप्त होता है। पद्मश्री की रूप शोभा का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है :
"उन्नय वंसुम्भव आसासिय-तिहयण-जयह ।
अहिणव-गुण सुंदरि चावलट्ठिय मयरद्धयहु ॥" इसमें उसके रूप की उपमा त्रिभुवन को जीतने का अश्वासन देने वाले मकरध्वज की गुणसुन्दरी या चापयष्टी से दी गई है। धाहिल की भाषा तत्कालीन अपभ्रंश है। इसमें प्राचीन संस्कृत-प्राकृत प्रयोगों का दबाव नहीं है। लोकोक्तियों और सुभाषितों के प्रयोग से भाषा सुबोध एवं प्रवाहमय बन गई है। कहा जाता है कि आप माघ कवि के वंशधर थे किन्तु इन पर माघ की क्लिष्ट भाषा का प्रभाव नहीं है। आप श्रीमाल वंशीय वैश्य थे। आपके पिता का नाम पार्श्व था। पउमसिरी आपकी एकमात्र प्राप्त रचना है। श्री मो० द० देसाई इनका समय ११०० के बाद और १२०० से पूर्व बताते हैं अर्थात् आप १२ वीं शताब्दी के कवि थे।
पद्मकीति- इन्होंने 'पासचरिउ' (पार्श्वपुराण ) नामक ग्रन्थ लिखा, इसमें तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र चित्रित है। यह १८ सन्धियों में ३ हजार से अधिक पद्य संख्या वाला विस्तृत काव्य ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल सन्दिग्ध है । ग्रन्थ अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित प्रति १६ वीं शताब्दी की प्राप्त है । डॉ० हीरालाल जैन इसे अधिकतम ११ वीं शताब्दी की रचना मानते हैं। इसमें भी परम्परित ढंग पर आत्मविनय, सज्जनों, दर्जनों का स्मरण आदि मिलता है। कवि की कवित्व शक्ति का अच्छा परिचय वर्षा वर्णन, रजनी एवं चन्द्रोदय वर्णन, जलक्रीड़ा के अलावा नारी के सौन्दर्य वर्णन आदि प्रसङ्गों से प्राप्त होता है। जलक्रीड़ा के समय रूपसियों के आँखों का अञ्जन और शरीर का अंगराग आदि घल-मिलकर 'निर्मल जल को आविल कर देता है। कवि इसी प्रसङ्ग के सम्बन्ध में लिखता है
"कच्छूरी चंदणु घुसिण रंगु, पक्खालि उ सलिले अंगलग्गु । कज्जल जल भरियहि लोयणेहिं, जुवइहिं मुक्कु णंजलु घणेहिं ।" भाषा में अनुरणात्मक शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई देती है। मात्रिक छन्दों के अतिरिक्त भुजङ्गप्रयात, स्रग्विणी आदि वर्णिक छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। आप सम्भवतः दक्षिणात्य थे। इनके जीवन वृत्त के सम्बन्ध में अधिक सूचनायें नहीं मिल सकी हैं।
श्रीधर- आप अग्रवाल कुलोत्पन्न वैश्य थे। इनकी माता का नाम
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