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५९० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
१५वीं शताब्दी का मरुगुर्जर गद्य साहित्य कुलमंडनसूरि--आपने सं० १४५० में 'मुग्धावबोधऔक्तिक' की रचना की। यह दामोदरभट्ट कृत 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' के परम्परा की महत्वपर्ण कृति है। इसमें विभक्तिविचार, कृदन्तविचार, उक्तिभेद के साथ शब्दसंग्रह और औक्तिक पद दिए हुए हैं। इसकी भाषा में तत्कालीन प्रचलित भाषा का प्रामाणिक रूप उपलब्ध होता है। श्री दिवेटिया इसे मरुगुर्जर गद्य की जययात्रा का एक महत्त्वपूर्ण प्रकाशस्तम्भ मानते हैं । इसके पश्चात् के गद्य-साहित्य में गुजराती और राजस्थानी भाषाओं का अलगअलग स्पष्ट स्वरूप मिलने लगता है। इसके अतिरिक्त 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' के ढंग की अन्य कई रचनायें प्राप्त हैं जिनमें साधुसुन्दरगणि कृत 'उक्तिरत्नाकर' और 'उक्तीयक' १६वीं शताब्दी की रचनायें हैं। इनमें 'मुग्धावबोध' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है, अतः इसकी भाषा का नमूना प्रस्तुत किया जा रहा है :-'मेघि वरिसतइ मोर नाचई। नाचइं इसी क्रिया। कउण नाचइ मोर । जे नाचइ ते कर्ता । तिहां प्रथमा। किसइ हुतइ नाचई मेघि । तिहां भावलक्षणि सप्तमी। मेघि किसु करतइ, वरस ई। इसके नाम के सम्बन्ध में श्री दिवेटिया ने काफी विचार किया है और निर्णय दिया है कि ग्रियर्सन ने इसका 'मौक्तिक' नाम अशुद्ध लिखा है, इसे 'औक्तिक होना चाहिए। इसके सम्पादक श्री एच० एच० ध्र व द्वारा ही 'मौक्तिक' का भ्रम शायद प्रारम्भ हुआ था।
पाटण भण्डार की ग्रंथसूची (भाग १ पृ० १२२) में 'उक्तिव्यक्तिविवृत्ति' का उल्लेख है जो उक्तिव्यक्तिप्रकरण की व्याख्या के रूप में लिखी गई है। इसके लेखक का निश्चित पता नहीं है। किन्तु यह रचना १६वीं शताब्दी से पूर्व की ही है, अतः इसकी भी दो पंक्तियाँ उदाहरणार्थ उद्ध त की जा रही है :
'धम्मु आथि धर्म कीजइ । दुह गावि दुधु गुवाल । यजमान कापडिया। 1. The Language contained in which being undoubtedly the langu
age of its day serves as a beacon-light throwing its flashes before and after. Shri N. B. Divatia-Gujarati Language & Literature
Page 16 २. डॉ० शिवप्रसाद सिंह-'सूरपूर्व व्रजभाषा और साहित्य पृ० १२४ ३. प्राचीन गुजराती गद्य सन्दर्भ-पृ० १७७
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