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मरु-गुर्जर जैन मागि काव्यशैली की विशेषता के कारण मधुर रासक है किन्तु पं० परमानन्द एवं डॉ० प्रेमसागर इसे द्वितीय ज्ञानभूषण की रचना कहते हैं । इस प्रकार इसके लेखक का निश्चित पता नहीं है । इसकी भाषा भी अपभ्रंश गर्भित है, अतः इसका विशेष विवरण एवं उद्धरण नहीं दिया जा रहा है ।
इनकी अन्य रचनाओं में षट्कर्म रास, जलगालन रास, अक्षयनिधिपूजा आदि उल्लेखनीय हैं । 'षट्कर्म रास' कर्म सिद्धान्त पर आधारित लघु रासक काव्य है । इसमें देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान को षट्कर्म कहा है जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है । इसमें ५३ छंद
हैं । इसका अन्तिम छन्द नमूने के रूप में उद्धृत किया जा रहा है :'सुणउ श्रावक सुणउ श्रावक एहषट्कर्म,
घरि रहइतां जे आचरइ, तेनर पर भवि स्वर्गं पामइ ।
नरपति पदपामी करीय नर सघला नइपाइ नामइ । समकित धरताँ जु घरइ श्रावक ए आचार, ज्ञानभूषण गुरु इम भणइ, ते पामइभवपार ।
जलगालन रास में जल छानने की विधि बताई गई है । इसमें ३३ पद्य हैं । इसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
पाणीय आणीय यतनकरी, जे गलसिइ नर नारि, श्री ज्ञानभूषण गुरु इम भणइ, ते तरसिइं संसारि । 2
आपका स्मरण कई परवर्ती लेखकों जैसे शुभचन्द्र और सकलभूषण आदि ने अपनी कृतियों में किया है । आपकी मृत्यु सं० १५६० के बाद किसी समय हुई होगी। आपकी अधिकतर रचनायें श्रावकों एवं साधुओं के लिए कर्त्तव्य कर्मों का विधि विधान बताने वाली हैं अतः इनमें साहित्यिक सरसता कहीं खोजने पर ही मिलती है ।
ज्ञानसागर - आप नायलगच्छीय गुणसमुद्रसूरि की परम्परा में गुणदेव सूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५२३ में 'जीवभवस्थितिरास' (२२३२ गाथा ), सिद्धचक्ररास - श्रीपालरास सं० १५३१ में लिखा लेकिन श्री मो० द० देसाई का कथन है कि जीवभवस्थितिरास का कर्त्ता बड़तपगच्छीय ज्ञानसागर का कोई शिष्य (संभवतः वच्छ या वाछा ) है । ज्ञानसागर की निश्चित रचना सिद्धचक्ररास ही है ।
१- २. कासलीवाल – राजस्थान के जैन सन्त पृ० ६०
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