SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद, इतिहास 'तित्थेसर त्रेवीसमु त्रिवभुन तारण तात, पणमंता पातक टलइ, समर्या हुई सुखसात । भोग सुखि भंमेरिया, भवी भवइभवकोडि, थाइ वैरागी वैगला, विषइ बिषडी खोडि ।। इसके अन्त में गुरुपरम्परा दी गई है। इसकी अन्तिम चौपाई इस प्रकार 'तस पय कमलि रमलि अलि समु, श्री लावण्यरत्न सुविहाणइ नमु, ते गुरु सीस आणंदि धणंइ, विद्यारत्न इणिपरि भणइ ।१२३॥2 श्री विद्यारत्न की दूसरी कृति 'मंगलकलशरास' ३३९ पद्यों की है। यह सं० १५७३ में लिखी गई। इसमें पाठकों की चित्तवृत्ति को पाप से हटा कर पुण्य की तरफ प्रेरित करने का प्रयास किया गया है। रचनाकाल इसमें दिया है : ‘तस पयकमल विमल चित्त धरी, विद्यारत्न कहे इणि परि, संवत पनरस्य तहोत्तरि रिष, मागसिर वदि नवमि मणि हरिष । पुण्य ऊपरि ए कीयो प्रबंध, पाप तणा टालिउं समंध, भणंता गुणंता सुणंता सार, ऋद्धि वृद्धि मंगल जयकार । भाषा के उदाहरण स्वरूप इसका प्रारम्भिक छंद प्रस्तुत है : 'श्री श्री राउलि जिन जपू, जगजीवनदेव, समर्यो काजसवै सरै, करई सुरासुर सेव, भारति आति सह हरै, चितवतिमति अति (अन्त), जे दरिस देखइडरी, दुरमति जाय दिगंत ।' जीव अनते अनन्त सुख लाधा धर्म प्रमाण । मंगलकलश प्रतिफलिउ सुनसे तास वषांण ।' यह संतुलित एवं स्वाभाविक मरुगुर्जर भाषा की कृति है जिसमें मरु एवं गुर्जर के शब्द प्रयोग समन्वित हैं। विनयचंद (२)- आप तपागच्छीय रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५१६ में जम्बूस्वामीरास' लिखा। इसका रचनाकाल कवि ने स्वयम् इस प्रकार बताया है :१. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क-भाग ३, ५० ६३९ २. वही ३. श्री अ. च० नाहटा-म० ज० गु० क०-पृ० १४३.१४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy