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मरु- गुर्जर जैन साहित्य
४५१ मयणारेहासतीचरित्र-यह रचना मदनरेखा सती के शील पर आधारित है। इसका प्रथम छन्द देखिये :
'श्रीजिन चउवीसइ नमी पणमीय गोयम पाइ,
करिसु कवित रलीयामणउ गुरु सरसति सुपसाइ।१। रचना काल -'पनरसइ सांत्रीसइ वरसि, अ प्रबन्ध कीधउ मन हरसि ।
वाचक मतिशेखर इम कहइ, भणइ गुणइ ते सर्व सुख लहइ ।३६९। यह रचना सं० १५३७ में लिखी गई। गुरु परम्परा बताते हुए कवि ने लिखा है
श्री उवओस गछि गुरुराय, कक्कसूरि तसु पटि विखाय,
सांप्रत देवगुपति गणधार ते सदगुरुनां वचन आधाः।' ईलाचरित्र या इलातीपुत्र के चरित्र पर आधारित 'इलापुत्रचरित्र' भावना विषय पर आधारित है। इसमें कवि ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि दान, तप आदि सब कर्म यदि भावना विहीन हों तो व्यर्थ और निष्फल होते हैं । इस बात को सिद्ध करने के लिए लेखक ने इलापुत्र का चरित्र उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया है। इसकी तथा इनके अन्य रचनाओं की भाषा राजस्थानी प्रभावित मरुगुर्जर है । उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ देखिये
'दान शील तप भावना, ओ ग्यारह तसु भेद, चहु दिसि चिर भमिवा ता क्षिणिहि क्षिपावइ खेद । तिहि चिहुमांहि अधिकेरडउ, वली विशेषइ भाव,
दानादिक त्रिणइ विफल, भाव न भावइ जाम ।' इनकी सात में से पाँच प्रमुख रचनाओं के उद्धरण देकर यह स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है कि भाषा और काव्य शैली की दृष्टि से वाचक मतिशेखर का जैन कवियों में विशेष स्थान है।
मलयचन्द–आप पूर्णिमागच्छीय साधुरत्नसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५१९ में सिंघासणबत्रीसीचौ०, सं० १५१९ में ही धनदत्तधनदेवचरित ( संबलसीकुमर चौपइ) और उसी वर्ष देवराजवत्सराजप्रबन्ध (गोपमंडली) में लिखा।
सिंघासन बत्तीसी की कथा लोकप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में भी यह कथा अपने ढंग से काफी प्रचलित है और इस पर आधारित अनेक रचनायें की जा चुकी हैं। मालवा के महाराज विक्रमादित्य और उनकी धारा नगरी का उल्लेख करता हुआ कवि प्रारम्भ में कहता है :
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