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३१० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कंचण कुडल हारोदर भणि मउड सिंगारी,
पंचकुमर पूणहि गयंदि दूव्वय वयसारी। अन्त में गंगा जमुना के मध्य कुलपर्वत पर पाण्डव क्रीड़ार्थ गये और नारद के आशीर्वचन से रास समाप्त हुआ।
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में भी कुछ ऐसी रचनायें संकलित हैं जिनके लेखक का नाम और रचनाकाल आदि ठीक नहीं मालूम है किन्तु वे १५वीं शताब्दी की रचनायें हैं । उन रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है, साथ ही भाषा के अध्ययनार्थ भी वे मूल्यवान हैं अतः ऐसी रचनाओं के कुछ अवतरण उनके मूल पाठ से अवतरित किए जा रहे हैं। सर्वप्रथम 'खरतर गुरु गुण वर्णन छप्पय' से एक छप्पय दिया जा रहा है :
इसमें ३२ छप्पय है किसी प्रति में ३७ छप्पय भी हैं। प्रथम छप्पय 'सो गुरु सुगुरु जु छविह जीव अप्पण सय जाणइ,
सो गुरु सुगुरु जु सच्चरुव सिद्धत वखाणइ । सो गुरु सुगुरु जुसील धम्म निम्मल परिपालइ, सो गुरु सुगुरु जु दव्व संग विस सम भणि टालइ । सो बेव सुगुरु जो मूल गण, उत्तर गण जइणा करइ ।
गुणवंत सुगुरु मो मतियणह पर तारइ अप्पण तरइ।१।' इसके बाद जिणवल्लभ से लेकर जिनभद्रसूरि तक के खरतर गच्छीय आचार्यों का ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। जिनोदयसूरि की पद प्रतिष्ठा और जिनचन्द्रसूरि के गुणों का बड़ा काव्यात्मक और आलंकारिक वर्णन किया गया है, इससे रास की नामावली की शुष्कता काफी कम हो गयी है । जिनभद्रसूरि को तत्कालीन सुगुरु के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह रचना उसी समय की होगी। जिनभद्रसूरि का समय १५वीं शती का उत्तरार्द्ध है । जिनभद्रसूरि की प्रशंसा सम्बन्धी एक छप्पय और दिया जा रहा है :
'ताम तिमिर घरि फरइं जाम दिणयरु नहि उग्गइ । तां मयगल मयमत्त जाम केसरीय न लग्गइ । तिम सयल वादि निय निय घरिहिं ताम गव्व पव्वइ चढइ ।
जिनभद्र सुरि सुहगुरु तणीयं हथ न जां कन्निहि पडइ । अनुप्रास की छटा का आनन्द लेते हुए इसके अन्तिम छंद की कुछ पंक्तियों का रसास्वादन किया जाय :-- १. ऐ० जे० का ० संग्रह ( भाग चार ) पृ० २४
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