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मरु-गुर्जर की निरुक्ति रचित विशाल साहित्य की समृद्ध परम्परा है जो जीवन के सभी पक्षों से सम्बद्ध है।
इस साहित्य के सर्जक मुख्यतया जैन साधु, विद्वान् एवं आचार्य हैं। इनके अतिरिक्त राजाश्रित भाटों, चारणों और सभापंडितों के द्वारा भी प्रभूत साहित्य लिखा गया है जिसमें गद्य और पद्य दोनों विधायें उपलब्ध हैं। यह तो पहले कहा जा चुका है कि प्राचीन काल में गुर्जरत्रा भी मारवाड़ में सम्मिलित था। राजस्थान के कौड़ीडवाने और श्रीमालपुर से प्राप्त शिलालेखों से इस कथन की पुष्टि होती है। भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् आबू को लेकर विवाद खड़ा हुआ। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के प्रभाव से यह भाग उस समय गुजरात में सम्मिलित कर दिया गया। किन्तु बाद में राजस्थान सरकार ने अनेक प्राचीन प्रमाणों के आधार पर इसे राजस्थान का अंग सिद्ध किया और यह पुनः राजस्थान में सम्मिलित कर दिया गया। कहने का तात्पर्य यह है कि राजस्थान एवं गुजरात की विभाजक रेखा चाहे वह राजनीतिक, भाषिक या भौगोलिक हो बहुत काल तक मिली जुली थी, दोनों की एकता के प्रमाण अधिक सुलभ हैं।
पूर्वी राजस्थान के ढूढाड़ और हड़ौती क्षेत्रों का ब्रज-भूमि से सामीप्य होने के कारण यहां की भाषा पर आगे चलकर ब्रजभाषा का व्यापक प्रभाव पड़ा, इसलिए यहां की साहित्य-भाषा ब्रज और राजस्थानी की मिली जुली मिश्र भाषा रही है। इस साहित्य को मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी का साहित्य ही कहा जाता रहा है। इस प्रकार राजस्थान के एक ओर हिन्दी क्षेत्र से और दूसरी ओर गुजराती क्षेत्र से घनिष्ठतापूर्वक जुड़ा होने के कारण राजस्थानी साहित्य की भाषा पर हिन्दी और गुजराती का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है। इसलिए इसके कई नाम भी मिलते हैं। टेस्सीतोरी ने जिसे डिंगल कहा था वह वीररसात्मक साहित्य के लिए चारणों द्वारा प्रयुक्त विशेष ओज-गुणसम्पन्न भाषा-शैली थी और मधुरगुण सम्पन्न शृगार-करुण आदि रसों की रचना के लिए इसी की दूसरी कोमल शैली पिंगल कही जाती थी। हम उसे डिंगल, पिंगल, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी आदि जिस भी नामसे पुकारें, सबका मतलब 'मरु-गुर्जर' से है । राजस्थानी की निजी विशेषतायें पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी में ही सुरक्षित है; उदाहरणार्थ भोजप्रबन्ध का निम्न दोहा द्रष्टव्य है। इसमें युद्ध में परा१. बनते बन छिपतउ फिरउ, गह्वर बनह निकूज ।
भूखउ भोजन मांगिबा, गोवलि आयउ मुंज । उद्ध त जैन गु. क. भाग १ पृ.८८
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