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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
इस कालावधि के तमाम लेखकों-शालिभद्रसूरि, विजयसेनसूरि और विनयचन्दसूरि आदि को डॉ० मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थानी का कवि बताया है जबकि हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्य - इतिहास ग्रंथ 'मिश्रबन्धु'विनोद' में इनकी भाषा को पुरानी हिन्दी बताया है । कहने का तात्पर्य यह है कि जब एक ही रचना को भिन्न-भिन्न विद्वान् हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती की रचना बताते हैं तो इससे निष्कर्ष निकलता है कि परोक्ष रूप से वे लोग इनकी एकता स्वीकार करते हैं । यह स्थिति १३वीं से १६वीं शताब्दी के कुछ बाद तक भी बनी रही और इनमें इतना कम अन्तर है कि प्रायः एकता का आभास होता है । उदयवन्त मुनि कृत 'गौतमरासा (वि० सं० १४१२ ) की भाषा उतनी ही हिन्दी है जितनी गुजराती । इसी प्रकार कल्याणमुनिकृत 'देवराज वच्छराज चउपइ' (वि० सं० १६४३) और मालकवि कृत 'पुरन्दर कुमार चउपइ' बहुत काल तक गुजराती की रचनायें मानी जाती रहीं परन्तु बाद में मुनिजिनविजयजी ने इन्हें हिन्दी का ग्रन्थ घोषित किया है । अतः १३वीं से १९वीं शताब्दी तक की समस्त जैन रचनाओं को मरु - गुर्जर जैन साहित्य के अन्तर्गत ही परिगणित करना उचित है ।
१२वीं - १३वीं शताब्दी में अपभ्रंश से विकसित यह मरु-गुर्जर भाषा एक नवजात शिशु के समान थी जिसका कोई स्थिर रूप नहीं था । इसके अनेक स्थानीय और परिवर्तनशील रूप प्रचलित थे । यह जनभाषा साहित्य की सूक्ष्म अभिव्यक्तियों का भारवहन करने में उस समय असमर्थ थी अतः इसमें अपभ्रंश की शैलियों का अनुगमन होता था । यही कारण है कि आगे भी बहुत समय तक मरु- गुर्जर के साथ अपभ्रंश का समानान्तर प्रयोग प्रचलित रहा । सारांश यह कि इस काल की भाषा में प्राचीन काल से आती हुई अपभ्रंश के साथ मरु और गुर्जर तथा पुरानी हिन्दी के रूप एक साथ प्रयुक्त होते दिखाई पड़ते हैं । फलतः एक ही रचना को कोई अपभ्रंश की, कोई राजस्थानी, कोई गुजराती और कोई हिन्दी की रचना घोषित कर देता है । जेकोबी ने भविष्यदत्त कथा और नेमिनाथचरित की भाषा को गुर्जर अपभ्रंश कहा है, किन्तु कुछ दूसरे विद्वान् इसे अवहट्ट, अवहंस, प्राकृत और षट्मंजरी आदि नाम भी देते हैं । विद्यापति ने अवहट्ट को देसिल बयना, और 'सब जन मिट्ठा' कहा है । लगता है कि स्थानभेद के अनुसार अपभ्रंश से आगे की देशी भाषाओं के भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप और नाम प्रचलित होने लगे थे ।
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