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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल सं० १२३५ मानते हैं। श्री अ० च० नाहटा ने इसे राजस्थान भारती में प्रकाशित कराया है और रचनाकाल सं० १२२५ बताया है। इस रचना में वादिदेव सुरि का स्मरण किया गया है इसलिए यह निश्चय ही उसी समय की रचना होगी। श्री नाहटा जी ने म० गु० जैन कवि' में वज्रसेन का समय सं० १२३५ बताया है। इसमें भगवान् ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत और उनके भ्राता बाहुबली के युद्ध का वर्णन है । इस घोर के कुछ पद्य उदाहरणार्थ आगे उद्धृत किए जा रहे हैं :
"देवसूरि पणमेवि सयलु तिय लोय वदीतउ,
वयरसेण सूरि भणइ ऐहु रख रंगुजु वीतं ।२५।" युद्ध वर्णन में वीर रस का अच्छा परिपाक हुआ है यथा सेना के प्रस्थान का वर्णन :
कोवानलि पञ्जलिउ ताव, भरहेसरु जंपइ । रे रे दियहु पियाणा, ढाक जिमु महियलु कंपइ ।२०॥ गुलु गुलंत चालिया, हाथिनं गिरिवर जंगम । हिंसा रवि जहि दिय दियंत, हल्लिय तुरंगम ॥२१॥ धर डोलइ खलभलइ सेनु, दिणियरु छाइजइ ।
भरहेसरु चालिय उ कटकि कसु ऊपमु दीजइ ।२२:" इसकी प्रति जैसलमेर के शास्त्रभंडार से सं० १४३७ की लिखित प्राप्त हुई है। इसका आदि पद्य :--
"पहिलउ रिसह जिणिंदुनमेवि,
भवियह निसुणहु रोलुघरेवि, बाहुबलि केरउ विजउ॥" वादिदेव सूरि--आपने दिगम्बर साधु कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। आपके पद्रधर श्री शालिभद्र सुरि ने 'भरतेश्वर बाहबलि घोर' के आधार पर सं० १२४१ में भरतेश्वर बाहुबलिरास की रचना की जिसका विवरण आगे यथा स्थान दिया जायेगा। वादिदेवसूरि ने सं० १२०० के आसपास मुनिचन्द गुरु स्तुति, ( २५ पद्य) की रचना की है। इसकी भाषा को अपभ्रंश प्रभावित प्राचीन गुजराती कहा गया है, वस्तुतः यह मरुगुर्जर की रचना है । कुछ विद्वान् इसे जूनी गुजराती और कुछ अपभ्रंश की रचना बताते हैं : आपका नाम देवसूरि था। आप
१. श्री अ० १० नाहटा--'रा० सा० का आ० का०' परम्परा पृ० १५५ २. श्री अ० च० नाहटा--गुर्जर जै० कवि पृ० ६
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