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________________ १०४ मरु-गुजर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रद्धा का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रद्धा और भक्ति में अभेद तो नहीं है किन्तु सामान्यतया विशेष भेद भी नहीं है । कुछ जैन आचार्यों ने भक्ति की परिभाषायें दी हैं ।आ० सोमदेव के अनुसार जिन, जिनागम और तप तथा श्रुत में पारायण आचार्य में सद्भाव विशद्धियुक्त अनुराग ही भक्ति है । जैन कवियों की भक्ति यही जिनेश्वर श्रद्धा या आत्म अथवा 'स्व' से अनुराग हैं । जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे अनुरागियों को योगी कहा है। ऐसा योगी वीतराग पर रीझकर श्रद्धा करता है । कर्मों का कर्ता या भोक्ता स्वयम् जीव अपने सद्कर्मों द्वारा आत्मिक अभ्युदय करता है । वह अपनी श्रद्धा भक्ति के बदले वीतराग से दया की याचना नहीं करता । वह अपने प्रयत्नों और सद्कर्मों द्वारा बन्ध से छुटकारा पाता हैं न कि भक्ति मार्गी भगवान् द्वारा उसकी अनुकम्पा मात्र से सद्गति पाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन साहित्य में स्तुति, स्तोत्र, स्तवन, वंदन सम्बन्धी प्रचुर साहित्य काफी पुराना है और यह सोचना कि राजस्थान और गुजरात में भक्ति का प्रचार वल्लभाचार्य की कृष्णभक्ति के प्रभाव से हुआ अंशतः ही सही है। वैष्णव भक्ति का कुछ प्रभाव अवश्य परवर्ती जैन भक्ति पर पड़ा । प्राचीन जैन भक्ति साहित्य के अन्तर्गत भक्ति आन्दोलन से काफी पूर्व लिखा अभयदेवसरि कृत 'जयतिहयण स्तोत्र' प्रसिद्ध है। इसमें स्तुति-वन्दन है किन्तु भक्ति का प्रचलित अर्थ में विकसित रूप नहीं है। जैन भक्ति काव्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है (१) निष्कल और (२) सकल भक्ति धारा । यह हिन्दी भक्ति साहित्य की निर्गण और सगुण भक्ति धारा के समान है । निष्कल ब्रह्म सिद्ध हैं, सिद्ध और शुद्ध आत्मा एक ही है । सकल ब्रह्म अरहन्त को कहते हैं। इस धारा में प्रचर जैन भक्ति साहित्य उपलब्ध है। धनपाल कृत भविसयत्तकहा में जिनभक्ति का आदर्श देखा जा सकता है और नेमिचन्द भंडारी कृत जिनवल्लभसूरि गुण वर्णन (सं० १२५६ ) में आचार्य भक्ति का नमूना मिलता है। हिन्दी में भक्तिकाल सं० १४०० से ११०० तक माना जाता है। इस अवध में जैन भक्ति काव्य की सैकड़ों रचनायें लिखी गईं। धनआनन्दः भैया भगवतीदास, बनारसीदास आदि इसके उल्लेखनीय स्तम्भ हैं। इनपर वैष्णव भक्ति का प्रभाव दिखाई पड़ता है यथा आनन्दघन के भगवान् स्वयं भक्त के घर आये, उनके हर्ष का पारावार १. डॉ० प्रेम सागर जैन 'जैन भक्तिकाव्य' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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