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मरु-गुर्जर की निरुक्ति विवाहल उ-विवाह, मंगल, बेलि और संयमश्री आदि इसके कई नाम हैं । सोममूर्ति गणि कृत जिनेश्वर सूरि संयमश्री वर्णनारास (सं० १३३१), मेरुनन्दन कृत जिनोदय सूरि विवाहलो के अतिरिक्त ऐसी अनेक रचनायें गिनाई जा सकती हैं । कुछ लोगों का विचार है कि विवाहलउ ही व्यावलो से अन्ततः बेलि बन गया है। इसलिए बेलि भी विवाहलउ की कोटि का काव्य है।
धवल भी विवाहलउ का पर्यायवाची है। ऐतिहासिक जैनकाव्यसंग्रह में संकलित जिनपतिसूरि धवलगीत सम्भवतः तेरहवीं शती की धवल संज्ञक प्रथम ज्ञात रचना है। यह मुक्तक एवं प्रबन्ध दोनों रूपों में प्रयुक्त किया जाता है। प्रारम्भ में यह लोकगीत समवेत रूप से गाने-नाचने के लिए प्रयुक्त होता था। अभी भी राजस्थानी में ऊषा दे धौल और जनोई के धौल गाये जाते हैं। इसे एक विशेष छन्द भी माना जाता है । हेमचन्द्र ने ४, ६ और ८ चरण वाले छन्दों का छन्दोनुशासन में उल्लेख किया है और इसके उत्साह, भ्रमर और अमर नामक तीन भेद भी गिनाये हैं । प्राकृतपैंगलम् में इसे छप्पय के ७१ भेदों में गिनाया गया है। संगीतशास्त्र में एक विशेष राग के रूप में भी धवल का उल्लेख मिलता है। साह रयण एवं भत्तउ द्वारा लिखित श्री जिनपतिसूरि धवल ( १३ वीं शती) सम्भवतः प्रारम्भिक धवल है। बाद में जयशेखर कृत नेमिनाथधवल आदि. अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। धवल विवाहलउ के अर्थ में भी कहीं-कही प्रयुक्त हुआ है किन्तु कहीं-कहीं धमालि, चौढालिया आदि के लिए भी धवल का प्रयोग किया गया मिलता है। मंगल -जन्मोत्सव, विवाह आदि. के अवसर पर गाये जाने वाले मंगल गीत बाद में प्रचलित हुए। ___ चर्च रो-( चाँचर ) रास की भाँति नृत्य-गीत युक्त यह भी एक काव्य विधा है । आ० हेमचन्द्र ने छंदोनुशासन में चर्चरी का लक्षण बताया है इससे इसके प्राचीन प्रचलन का पता चलता है । आ० जिनदत्तसूरि कृत 'चर्चरी' की चर्चा पहले की जा चुकी है । सोलणु कृत चर्चरीका ( १४वीं शती ) भी इस प्रकार की उल्लेखनीय रचना है । चाँचरि, चच्चरिका आदि, इसके अन्य प्रचलित नाम हैं । इसे ताल-नृत्य के साथ उत्तवों पर गाया जाता था। जैनाचार्यों ने चर्चरी की रचना जैन मन्दिरों में गाने योग्य धार्मिक पदों के रूप में की है ।
फागु-संस्कृत फाल्गुन का अपभ्रंश है। इसका सम्बन्ध वसन्तोत्सव और अनंगपूजा से है । वसंत के आगमन पर प्रकृति में नवजीवन का संचार
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