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________________ जैन न्याय है; क्योंकि ज्ञान और प्रमितिके बीचमें किसी दूसरेका व्यवधान नहीं है । ज्ञानके होते ही पदार्थकी प्रमिति ( जानकारी ) हो जाती है। किन्तु कारकसाकल्यमें यह बात नहीं है। कारकसाकल्य ज्ञानको उत्पन्न करता है, तब पदार्थको जानकारी होती है । अतः कारकसाकल्य और प्रमितिके बीचमें ज्ञानका व्यवधान है। अतः कारक साकल्य मुख्यरूपसे प्रमाण नहीं है। क्योंकि ऐसा नियम है कि जिस कार्य में जो-जो दूसरेसे व्यवहित होता है, वह उस कार्यमें मुख्यरूपसे साधकतम नहीं कहा जाता; जैसे लकड़ीको यद्यपि बढ़ई काटता है, किन्तु बिना कुल्हाड़ोके बढ़ई लकड़ी नहीं काट सकता । अतः बढ़ई मुख्य रूपसे उसमें साधकतम नहीं है। इसी तरह कारकसाकल्य भी स्व और परको प्रमिति स्वयं नहीं कराता, किन्तु ज्ञानके द्वारा ही वह होतो है, अत: कारकसाकल्य मुख्यरूपसे प्रमाण नहीं हो सकता। हाँ, उसे उपचारसे प्रमाण माननेमें कोई आपत्ति नहीं है; क्योंकि स्व और परकी प्रमितिमें मुख्यरूपसे साधकतम जो ज्ञान है, उस ज्ञानका उत्पादक होनेसे कारकसाकल्य भी साधकतम है और इसलिए उसे भो प्रमाण माना जा सकता है। लिंग, शब्द आदि भी उपचारसे ही प्रमाण हैं । ३. इन्द्रियवृत्ति समोक्षा सांख्यका कहना है कि सन्निकर्ष और कारकसाकल्य भले ही प्रमाण न हों, किन्तु इससे ज्ञान प्रमाण सिद्ध नहीं होता । अर्थकी प्रमिति में इन्द्रियवृत्ति ही साधकतम है, अतः उसे ही प्रमाण मानना चाहिए । इन्द्रियाँ जब विषयके आकार परिणमन करती है, तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द आदिका ज्ञान कराती हैं। अतः पदार्थका सम्पर्क होने से पहले इन्द्रियोंका विषयाकार होना इन्द्रियवृत्ति है । वही प्रमाण है। ___सांख्यका उक्त कथन ठीक नहीं है; क्योंकि इन्द्रियवृत्ति अचेतन है, और जो अचेतन होता है, वह पदार्थको जानने में साधकतम नहीं हो सकता। इन्द्रियवृत्ति क्या है-इन्द्रियोंका पदार्थके पास जाना, पदार्थकी ओर अभिमुख होना, अथवा पदार्थके आकार होना ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि सन्निकर्षकी समीक्षा करते हुए बताया है कि इन्द्रियाँ पदार्थ के पास नहीं जाती। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि इन्द्रियोंका पदार्थकी ओर अभिमुख होना ज्ञानको उत्पत्तिमें कारण होनेसे उपचारसे प्रमाण हो सकता है, वास्तव में तो प्रमाण ज्ञान ही है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि इन्द्रियोंका पदार्थके आकार होना प्रतीतिविरुद्ध है। १. सांख्य का० २८ । माठरवृ० पृ० ४७। योगद० व्यासभा०, पृ० २७ । २. न्या० कु० च०, पृ० ४०-४१, प्रमेय क० मा०, पृ० १६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.:
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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