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प्रमाण
नहीं है और उनमें भी कुछ पदार्थ सूक्ष्म हैं, जैसे परमाणु । कुछ पदार्थ अतीत हो चुके हैं, जैसे राम रावण । कुछ पदार्थ सुदूरवर्ती हैं, जैसे सुमेरु । इन सबके साथ मन और इन्द्रियोंका सन्निकर्ष नहीं होता और बिना सन्निकर्षके हुए ज्ञान नहीं होता।
शंका-आत्मा व्यापक है अतः समस्त पदार्थों के साथ उसका सन्निकर्ष होनेसे वह सबको जानता है।
समाधान-आत्माको व्यापक मानने में भी अनेक आपत्तियां आती हैं जिनपर यथावसर प्रकाश डाला जायेगा। अतः सन्निकर्षको प्रमाण मानना उचित नहीं है।
२. कारक साकल्यवाद पूर्वपक्ष--जो साधकतम होता है उसे करण कहते हैं । और अर्थका व्यभिचाररहित ज्ञान कराने में जो करण है, उसे प्रमाण कहते हैं। अर्थका निर्दोष ज्ञान किसी एक कारकसे नहीं होता, किन्तु कारकोंके समूहसे होता है । देखा जाता है कि एक-दो कारकोंके होनेपर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, और समग्र कारकोंके होनेपर नियमसे उत्पन्न होता है । इसलिए कारकसाकल्य ही ज्ञानकी उत्पत्तिमें करण है । अतः वही प्रमाण है, ज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि ज्ञान तो फल है और फलको प्रमाण मानना उचित नहीं है; क्योंकि प्रमाण और फल भिन्न होते हैं। यदि ज्ञानको ही प्रमाण माना जायेगा तो लोगोंने जो अज्ञान स्वरूप शब्द-लिंग आदिको प्रमाण माना है, वे अप्रमाण ठहरेंगे। ज्ञान भी पदार्थका ज्ञान कराने में कारण है। जैसे विशेष्यके प्रत्यक्षमें विशेषण ज्ञान, अग्निके जानने में धूमका ज्ञान, अर्थके जानने में शब्द-ज्ञान, अतः सकल कारकोंमें ज्ञान भी लिया गया है। इसलिए वह भी प्रमाण है। इस प्रकार ज्ञान और अज्ञान स्वरूप कारकोंका साकल्य ही प्रमाण है।
उत्तर-पक्ष-कारकसाकल्य मुख्य रूपसे प्रमाण है या उपचारसे । मुख्य रूपसे तो वह प्रमाण हो नहीं सकता क्योंकि कारकसाकल्य अज्ञानरूप है। जो अज्ञानरूप होता है वह स्व और परकी प्रमितिमें मुख्यरूपसे साधकतम नहीं हो सकता। उनको प्रमितिमें मुख्यरूपसे साधकतम तो अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही हो सकता
१. न्यायमं०, पृ० १२ आदि । २. कारकसाकल्यको विस्तृत समीक्षाके लिए देखो-न्या० कु० च० पृ० ३५-३६ तथा
प्र०क० मा० पृ० ७-१३ ।
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