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________________ लेखकके दो शब्द एक बार पुराने 'पत्रों को फ़ाइलोंको देखते समय मेरी दृष्टि जैनहितैषी, भाग १५, अंक ७-८में प्रकाशित एक लेखपर पड़ी। लेखका शोषक था 'हिन्दीमें जैनदर्शन' और लेखक थे 'एडवर्ड एंग्लो संस्कृत हाईस्कूल' मुजफ़्फ़रनगरके हेडमास्टर श्री मोतीलाल जैन एम० ए० । यह लेख सन् १९२१ में लिखा गया था और एक स्कीमके रूपमें था । स्कीम बहुत ही सुन्दर और आवश्यक थी। उसने मुझे आकृष्ट किया। इधर 'बंगीय संस्कृत शिक्षा परिषद्' कलकत्तासे जैन ग्रन्थोंमें भी परीक्षा देकर जैन न्यायतीर्थको उपाधि सुलभ हो जानेसे जैन विद्यालयों में जैन न्यायके प्रमुख ग्रन्थ अष्टसहस्री और प्रमेयकमलमार्तण्डके पठन-पाठनका खूब प्रचार बढ़ा और प्रतिवर्ष जैन विद्वान न्यायतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण करने लगे। किन्तु पश्चात् समयने ऐसा पलटा खाया कि न्यायशास्त्रकी ओरसे छात्रोंमें उदासीनता आती गयी। धार्मिक ग्रन्थोंकी तो हिन्दी टोकाएँ भी सुलभ थों, किन्तु न्यायशास्त्रके सम्बन्धमें यह सहूलियत भी नहीं थी। न्यायशास्त्रके प्राथमिक ग्रन्योंको हिन्दी टोका भी इस युगके न्यायशास्त्रधुरीण विद्वानोंने की, किन्तु अष्टसहस्रो, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र-जैसे ग्रन्थोंकी हिन्दी टीका करना सुगम नहीं है । और जैन न्यायका पठन-पाठन चालू रखनेके लिए आजके युगमें यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि हिन्दी में उसे सुलभ बनाने की चेष्टा की जाये । उक्त स्कीम तथा आवश्यकतासे प्रेरित होकर मैंने हिन्दी में 'जैन दर्शन' नामक पुस्तक लिखनेका विचार किया। और आजसे लगभग दो दशक पूर्व उसे लिख भी डाला। स्व० पं० महेन्द्र कुमार. जी न्यायाचार्य-द्वारा लिखित 'जैन दर्शन' पुस्तकका प्रकाशन श्री वर्णी जैन ग्रन्थमालासे हुआ। पीछे भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसीके तत्कालीन व्यवस्थापक श्रोबाबूलालजी फागुल्लके प्रयत्नसे उसके मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी जैनने मेरी जैनदर्शन पुस्तकको भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित करना स्वीकार किया। किन्तु चूंकि 'जैन दर्शन' नामसे एक पुस्तक पहले प्रकाशित हो चुकी थी अतः इसे जैन न्याय नाम देना ही उचित समझा गया। जैन दर्शनमें जैन तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध विषयोंका समावेश होनेसे उसकी सीमा विस्तृत है किन्तु जैन न्यायमें मूलतः प्रमाण शास्त्र ही प्रधानरूपसे आता है और उसीकी चर्चा इस पुस्तकमें होनेसे भी उसे जैन न्याय नाम देना ही उचित प्रतीत हुआ और इस तरह इस पुस्तकका नामकरण संस्कार निष्पन्न हुआ। प्रमाणके द्वारा पदार्थको परीक्षा करनेको न्याय कहते हैं । इसीसे न्यायशास्त्र - को प्रमाणशास्त्र भी कहते हैं। प्रमागके अन्तर्गत प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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