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प्राक्कथन
सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीके द्वारा लिखित पुस्तकका मैंने विशेष अभिरुचि और प्रसन्नताके साथ अवलोकन किया। प्रस्तुत पुस्तकमें जैन न्याय शास्त्रके कतिपय महत्त्वपूर्ण विषयोंका सावधानीके साथ अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और इसमें प्राचीन अधिकारी ग्रन्थकारोंके मन्तव्योंको भी सार रूपमें दिया गया है। पृष्ठभूमिमें, जिसे ग्रन्थकी प्रस्तावना कहा जा सकता है, लेखकने समग्र जैन क्षेत्रके अकलंक, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, सिद्धसेन, पात्रकेसरी, विद्यानन्द, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि ग्रन्थकारोंका पर्यवेक्षण दिया है ।
भारतीय दर्शनके गम्भीर अध्येता सुपरिचित हैं कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतमें जैन नैयायिकोंने हिन्दू और बौद्ध नैयायिकोंके साथ वादानुवादमें शानदार भाग लिया है। प्राचीन कालीन जैन न्याय और दर्शनके गम्भीर अध्येताओंके लिए पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीको यह पुस्तक एक बहुमूल्य और प्रामाणिक मार्गदर्शकका कार्य करेगी। कृति जिस रूपमें हमारे सामने है, वह लेखकके अथक परिश्रमका फल है तथा उसके विषयकी आलोचनात्मक पकड़ और समुचित प्रस्तुतीकरणकी क्षमताको परिचायक है।
मैं आशा करता है कि यह पुस्तक न केवल जैन विद्यार्थी अपितु भारतीय दर्शनके क्रमिक विकासके इतिहासके प्रेमी विद्वान् भी रुचिपूर्वक पढ़ेंगे और उससे लाभान्वित होंगे।
भ० सिगरा वाराणसी
-गोपीनाथ कविराज महामहोपाध्याय, साहित्यवाचस्पति,
पद्मविभूषण
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