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________________ जैन न्याय से अज्ञानकी निवृत्ति होती है और अज्ञानकी निवृत्ति होनेके पश्चात् हानादि बुद्ध होती है । अतः प्रमाणका साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है और परम्परा फल हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि है । अतः प्रमाणसे फल भिन्न भो होता है और अभिन्न भी होता है । यदि प्रमाण और फलको सर्वथा भिन्न अथवा सर्वथा अभिन्न माना जायेगा तो उनमें प्रमाण और फनका व्यवहार नहीं बन सकता । अतः क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अवग्रह आदि ज्ञानों में से पूर्व पूर्वका ज्ञान प्रमाण और उत्तर-उत्तरका ज्ञान उसका फल होता है। आशय यह है कि अवग्रह ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान में से पूर्व पूर्वका ज्ञान प्रमाण है और उत्तरउत्तरका ज्ञान उसका फल है । जैसे, अवग्रह ज्ञान प्रमाण है और ईहा ज्ञान उसका फल है; क्योंकि ईहाज्ञानके होनेमें अवग्रह ज्ञान साधकतम है और ईहाज्ञान उसका साध्य है । इसी तरह अवायज्ञानकी उत्पत्ति में साधकतम होनेसे ईहाज्ञान प्रमाण है और अवायज्ञान उसका फल है । धारणाज्ञानको उत्पत्ति में साधकतम होनेसे अवायज्ञान प्रमाण हैं और धारणाज्ञान उसका फल है। स्मृतिको उत्पत्तिमें साधकतम होनेसे धारणाज्ञान प्रमाण हैं ओर स्मृति उसका फल है । प्रत्यभिज्ञानकी उत्पत्ति में कारण होनेसे स्मृति प्रमाण है और प्रत्यभिज्ञान फल है। तर्क प्रमाणकी उत्पत्ति में कारण होनेसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है और तर्क फल है । अनुमान प्रमाणकी उत्पत्तिमें साधकतम होनेसे तर्क प्रमाण है और अनुमानज्ञान फल है । तथा अनुमानज्ञान भी अज्ञाननिवृत्ति आदि फलमें कारण होनेसे प्रमाण है । इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान प्रमाण भी है और फल भी है । अतः यद्यपि प्रमाण और फल क्रमभात्री होते हैं, फिर भी उनमें परस्पर में कथंचित् एकत्व होता है । प्रमाण और फल में सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकों का पूर्वपक्ष "नैयायिकका कहना है कि प्रमाण और फलमें तादात्म्य नहीं बन सकता; क्योंकि प्रमाणकारक है। जो कारक होता है वह अपने से भिन्न पदार्थ में क्रिया करता है, जैसे कुठार अग्नेसे भिन्न लकड़ोको चोर डालता है। चूंकि प्रमाण भी कारक है अतः वह अपनेसे भिन्न पदार्थ में क्रियाको करता है । तथा, प्रमाण अपने से भिन्न फलका कर्ता है; क्योंकि वह करण है । जो करण होता है वह अपनेसे भिन्न फलका कर्ता होता है, जैसे कुठार आदि । कुठार आदि स्वात्मामें क्रिया करते हुए नहीं देखे जाते । और जो कुछ करता नहीं है, वह करण हो नहीं सकता । अतः जो कर्ता अथवा कर्म में अपनेसे भिन्न फलको करता है वहो करण है । न्या० कु० च०, पृ० २०८ । ३३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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