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जैन न्याय
नहीं है; क्योंकि इनमें लिंग आदिका भेद नहीं है, किन्तु समभिरूढ़ नय प्रत्येक शब्दका भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है । जितने शब्द हैं उतने ही उनके वाच्यार्थ हैं ।
एवंभूतनय-शब्दका जो वाच्यार्थ है, उस रूप क्रिया परिणत अर्थ हो उस शब्दका वाच्यार्थ है यह एवंभूतनयकी दृष्टि है। जैसे जिस समय स्वर्गका स्वामी इन्दन अर्थात् परमैश्वर्यका अनुभवन करता हो उसी समय वह इन्द्र कहे जानेके योग्य है। इस तरह इस नयकी दृष्टिमें प्रत्येक शब्दका प्रयोग उस क्रियारूप परिणत अवस्थामें ही उचित माना जाता है ।। __ 'उक्त सात नयोंमें पूर्व-पूर्वका नय बहुविषयवाला है; क्योंकि वह कारणरूप है। और उत्तर-उत्तरका नय अल्पविषयवाला है; क्योंकि वह पूर्वनयका कार्यरूप है। जैसे नैगम और संग्रह नयोंमें-से संग्रहनय बहुविषयवाला नहीं है; क्योंकि वह नैगमसे उत्तर है, बल्कि संग्रहसे पूर्व होनेके कारण नैगमनय ही बहुविषयवाला है । संग्रहनय केवल सन्मात्रको ग्रहण करता है किन्तु नैगमनय सत् असत् दोनोंका ग्राहक है; क्योंकि जैसे सद्रूप वस्तुमें संकल्प किया जाता है वैसे ही असद्रूप वस्तुमें भी संकल्प किया जाता है । तथा संग्रहसे व्यवहारनय अल्पविषयवाला है; क्योंकि संग्रहनय तो समस्त सत्समूहका संग्राहक है, और व्यवहारनय सद्विशेषका ही ग्राहक है । व्यवहारनयसे ऋजुसूत्रनय अल्पविषयवाला है। क्योंकि व्यवहारनय त्रिकालवर्ती अर्थको ग्रहण करता है और ऋजुसूत्रनय वर्तमान अर्थको ही ग्रहण करता है। ऋजुसूत्रनयसे शब्दनय अल्पविषयवाला है, क्योंकि ऋजुसूत्र कालादिके भेदसे अर्थको भेदरूप नहीं मानता, किन्तु शब्दनय मानता है। शब्दनयसे समभिरूढ़नय अल्पविषयवाला है; क्योंकि शब्दनय तो पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको स्वीकार करता है किन्तु समभिरूढ़ पर्यायभेदसे अर्थको भेदरूप स्वीकार करता है । समभिरूढ़नयसे एवंभूतनय अल्पविषयवाला है; क्योंकि समभिरूढनय क्रियाभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको ग्रहण करता है, परन्तु एवंभूतनय क्रियाभेदसे अर्थको भेदरूप स्वीकार करता है । इस प्रकार नयोंका स्वरूप जानना चाहिए ।
१.त० श्लो० २वा०, पृ० २७४ ।
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