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जैन न्याय
नय
ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं । और प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एकदेशमें वस्तुका निश्चय 'अभिप्राय' है । आशय यह है कि वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक है और प्रमाण द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको जानता है। प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्यांश अथवा पर्यायां में वस्तुका निश्चय करनेको नय कहते है।
प्रमाण और नयमें भेद-किन्हीं का कहना है कि नय प्रमाण ही हैं; क्योंकि प्रमाणकी तरह नय भी स्वका और अर्थका निश्चायक है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि नय स्व और अर्थ के एकदेशका निश्चायक होता है।
शंका-स्व और अर्थका एकदेश वस्तु है अथवा अवस्तु है। यदि वस्तु है तो वस्तुका ग्राहक होनेसे नय प्रमाण ही ठहरता है। और यदि अवस्तु है तो अवस्तुका ग्राहक होनेसे नय मिथ्याज्ञान कहा जायेगा; क्योंकि अवस्तुको जानना मिथ्याज्ञानका लक्षण है।
समाधान-जैसे समुद्रका एकदेश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही है वैसे ही नयके द्वारा जाना गया वस्तुका अंश न तो वस्तु ही है और न अवस्तू ही है । यदि समुद्र के एकदेशको ही समुद्र कहा जायेगा तो समुद्रके शेष देश असमुद्र हो जायेंगे। या फिर एक-एक देशको समुद्र माननेसे बहुत-से समुद्र हो जायेंगे। और यदि समुद्र के एकदेशको असमुद्र कहा जायेगा तो समुद्रके शेष देश भी असमुद्र कहलायेंगे और ऐसी स्थितिमें कहीं भी समुद्र पनका व्यवहार नहीं बन सकेगा। अत: समुद्र का एकदेश न तो समुद्र है और न असमुद्र है किन्तु समुद्रका अंश है । उसो तरह नयके द्वारा जाना गया स्वार्थका एकदेश न तो वस्तु है; क्योंकि स्वार्थके एकदेशको वस्तु माननेसे उसके अन्य देशोंको अवस्तुत्वका प्रसंग आता है। या फिर वस्तुके बहुत्वका प्रसंग आता है। तथा नयसे जाना गया वस्तुका एकदेश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि यदि वस्तुके एक देशको अवस्तु माना जायेगा तो उसके शेष देश भी अवस्तु कहे जायेंगे, और ऐसी स्थितिमें कहीं भी वस्तुको व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अतः नयके द्वारा जाना गया वस्तुका एकदेश वस्त्वंश ही है।
१. षट खण्डागम, पु० ६, पृ० १६२ आदि।। २. 'स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् । स्वार्थंकदेशनिर्णातिलक्षणो हि नयः
स्मृतः॥४॥ नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः। नासमुद्रो समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते।'५॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । समुद्रस्य बहुत्वं वा स्यात्तच्चे. कास्तु समुद्रवित् ॥६॥
-त० श्लोकवार्तिक १-६ सू० ।
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