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________________ श्रुतके दो उपयोग चूंकि प्रमाण सकलादेशी होता है अत: प्रमाणवाक्य प्रधानरूपसे अशेष धर्मात्मक वस्तुका प्रकाशक होता है । यदि सभी वाक्य गौण और प्रधानरूपसे अर्थके वाचक होते हैं तो ऐसी स्थितिम प्रमाणवाक्य नहीं बन सकता। समाधान-द्रव्याथिकनयसे अनन्तपर्यायात्मक एक ही द्रव्यके कथनका नाम प्रमाणवाक्य है। और पर्यायाथिकनयसे समस्त पर्यायोंमें काल आदिके द्वारा अभेदका उपचार करके उपचरित एक ही वस्तु नयवाक्यका विषय है। पदकी तरह कोई वाक्य अनेक अर्थों को एक साथ प्रधानरूपसे नहीं कह सकता। हजार संकेत करनेपर भी वाचक और वाच्य अपनी शक्ति और अशक्तिका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः वस्तु स्यात् अवक्तव्य है। क्योंकि दोनों धर्मों को कहनेवाला कोई शब्द नहीं है । 'स्थात् अवक्तव्य'का अर्थ होता है सर्वथा अवक्तव्य नहीं, किन्तु अपेक्षाभेदसे अवक्तव्य है । अवक्तव्यशब्दसे तथा अन्य छह भंगोंके द्वारा तो वस्तु वक्तव्य है। यदि सर्व या अवक्तव्य हो तो अवक्तव्यशब्दसे भी उसे नहीं कहा जा सकता। चतुर्थ मंग-स्यादस्ति नास्ति-अस्ति और नास्ति दोनों धर्मों का क्रमसे एक साथ कथन करनेपर चतुर्थ भंग बनता है । यदि वस्तुको सर्वथा उभयात्मक माना जायेगा तो सर्वथा सत् और सर्वथा असत्में परस्परमें विरोध होनेसे उभयदोषका प्रसंग आता है अतः कथंचित् उभयरूप समझना चाहिए। पाँचवाँ भंग-व्यस्त द्रव्य और एक साथ अपित द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षा. से 'स्यादस्ति अवक्तव्य' इस वाक्यकी प्रवृत्ति होती है। जैसे आत्मा द्रव्यत्व, जीवत्व या मनुष्यत्व रूपसे 'अस्ति' है, तथा द्रव्यपर्याय सामान्य और तदभावकी एक साथ विवक्षामें अवक्तव्य है । इस तरह स्यादस्ति अवक्तव्य भंग बनता है। छठा भंग-स्यानास्ति अवक्तव्य-व्यस्त पर्याय और समस्त द्रव्यपर्यायकी अपेक्षा 'स्यान्नास्ति अवक्तव्य' भंग बनता है। आशय यह है कि वस्तुगत नास्तित्व जब अवक्तव्यके साथ अनुबद्ध होकर विवक्षित होता है तब यह भंग बनता है। नास्तित्व पर्यायको दृष्टिसे है। पर्यायें दो प्रकारको होती हैं-सहभाविनी और क्रमभाविनी। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय आदि सहभाविनी तथा क्रोध, मान, बचपन, यौवन आदि क्रमभाविनी पर्यायें है। पर्यायष्टिसे गत्यादि और क्रोधादि पर्यायोंसे भिन्न कोई एक अबस्थायो जीव नहीं है, किन्तु वे ही क्रमिक पर्यायें जीव कही जाती हैं। जो वस्तुत्व रूपसे सत् है वही द्रव्यांश है तथा जो अवस्तुत्व रूपसे असत् है वही पर्यायांश है। इन दोनोंकी युगपद् अभेद विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है। इस तरह वस्तु स्यात् नास्ति अवक्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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