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जैन न्याय
दिया जाता है। अतः दो वृक्ष शब्द ही दो वृक्षोंको और अनेक वृक्षशब्द अनेक वृक्षोंको कहते हैं । और जैनेन्द्र व्याकरणके अनुसार द्विवचनान्त और बहुवचनान्त वृक्षशब्द स्वभावसे ही द्वित्वविशिष्ट या बहुत्वविशिष्ट अपने वाच्यार्थको कहता है; क्योंकि उसमें उस प्रकारकी शक्ति विद्यमान है।।
शंका--स्वामी समन्तभद्रने बृहत् स्वयंभू स्तोत्रमें लिखा है-'अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या ।' अतः पदका वाच्य एक भी होता है और अनेक भी होता है ऐसा स्याद्वादी जैनोंने स्वीकार किया है ? ___ समाधान--प्रश्न यह है कि पदका वाच्य एक और अनेक प्रधान रूपसे होता है या गौणता और प्रधानतासे होता है ? पहला पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि उस प्रकारको प्रतीति नहीं होती। वृक्षशब्द वृक्षत्व जातिके द्वारा पहले वृक्ष द्रव्यको कहता है, तत्पश्चात् लिंग और संख्याको कहता है, इस प्रकार क्रमसे ही प्रतीति होती है । कहा भी है।
'स्वार्थमभिधाय शब्दो निरपेक्षो द्रव्यमाह समवेतम् ।
समवेतस्य तु वचने लिङ्गं संख्यां विमतीश्च ॥ अतः प्रधान रूपसे वृक्षार्थको प्रतीति होती है और गौण रूपसे बहुत्वसंख्याकी प्रतीति होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। क्योंकि हमें दूसरा प्रधान-गौण रूप पक्ष ही इष्ट है । 'स्यात्' यह निपात अनेक धर्मोंका आकांक्षी है-सूचक या द्योतक है। अतः वह गौणभूत धर्मोंसे निरपेक्ष एक ही धर्मको प्रधानरूपसे कथन करनेका विरोधी है। समस्त वाचकतत्त्व गुण प्रधान रूपसे ही अर्थका कथन करते हैं; और वाच्यतत्त्व भी तद्रूप ही है । कहा है
आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः । गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तदद्विषतामपथ्यम् ॥
-वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र-श्रीसुविधिजिनस्तवन ॥ अनेक धर्मात्मक वस्तुको माननेवाले जैनोंका 'स्यात्' यह निपात गौणको अपेक्षा न रखनेवाले एकान्त मतमें अपवाद है अर्थात् एकान्तमतका निराकरण करनेवाला है। 'स्यात्' पदरूप यह वाक्य गौण और प्रधान दोनों ही धर्मोका वाचक है। और वह जिनमतसे द्वेष रखनेवाले एकान्तवादियोंके लिए अपथ्यअहितकर है।
शंका-आप जैन लोग प्रमाण और नयरूप दो प्रकार के वाक्य मानते हैं।
१. अष्टसहस्री, पृ० १३८ ।
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