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________________ परोक्षप्रमाण २७१ संस्कृत शब्दों को ही अर्थका वाचक माननेवाले मीमांसक और वैयाकरणोंका पूर्वपक्ष - वैयाकरण आदिका कहना है कि एक शब्दको भी सम्यक्रीति से जानकर शास्त्रानुसार उसका शुद्ध प्रयोग करनेसे इस लोक और परलोकमें इच्छित फलकी प्राप्ति होती है । अर्थका ज्ञान कराने में संस्कृत भाषा के शब्द ही कारण हो सकते हैं, प्राकृत भाषाके शब्द नहीं अतः व्याकरणसे सिद्ध 'गौ' आदि शब्द ही साधु है और इसलिए वे ही अर्थके वाचक हो सकते हैं, 'गौ' शब्द के अपभ्रंश 'गावी' 'गोणी' आदि शब्द अर्थके वाचक नहीं हो सकते क्योंकि वे शुद्ध नहीं हैं । वृद्धपरम्परा के अनुसार अन्वय और व्यतिरेकके आधारपर वाच्य वाचक भावकी व्यवस्था की जाती है । जब एक गो शब्दकी एक गोत्वलक्षणरूप अर्थ में - शक्ति मानकर अन्वयव्यतिरेक निश्चित हो गये तो वे अन्वयव्यतिरेक गौशब्द से भिन्न गावी आदि शब्दोंकी उसी गोत्वरूप अर्थ में शक्ति नहीं मान सकते । क्योंकि जो जिसके बिना नहीं होता वह उसको अपनी उत्पत्ति में कारण नहीं मानता है । और जो जिसके बिना भी हो जाता है वह उसको अपनी उत्पत्ति में कारण नहीं मानता । शायद कहा जाये कि अन्वयव्यतिरेकके द्वारा जब 'गावी' शब्द से भी अर्थकी प्रतीति हो सकती है तो गावी शब्द वाचक क्यों नहीं है ? किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि 'गावी' शब्दमें अन्वयव्यतिरेक दूसरी तरहसे बनता है । यद्यपि 'गावी' शब्द वाचक नहीं है, फिर भी 'गावी' शब्दको सुनकर श्रोताको वाचक गौशब्दकी स्मृति होती है और फिर उससे अर्थको प्रतिपत्ति होती है । देखा जाता है कि अशुद्ध शब्दका प्रयोग किये जानेपर पहले शुद्ध शब्दका - स्मरण होता है फिर उससे अर्थका ज्ञान होता है । जैसे, बालक माताको पुकारने के लिए 'अम्ब' कहना चाहता है किन्तु उच्चारण करनेमें असमर्थ होनेके कारण 'अम्म्' 'अम्म्' चिल्लाता है। माता उसकी पुकार सुनकर सोचती है कि बच्चेने 'अम्ब' शब्द के स्थान में 'अम्म्' शब्द कहा है । अतः अशुद्ध 'अम्म्' शब्द से शुद्ध " अम्ब' शब्दका स्मरण करके ही माता उसका अर्थज्ञान करती है । तथा पूरब में ' षंढ' शब्द के स्थान में 'संढ' शब्दका उच्चारण होता है । व्यवहारी -पुरुष संढ शब्दको सुनकर जान लेता है कि इसने ' षंढ' शब्द के स्थान में 'सं'ढ' शब्दका उच्चारण किया है। अतः वह शुद्ध 'षंढ' शब्दका स्मरण करके ही उसका अर्थ जानता है । इसी तरह अशुद्ध 'गावी' शब्द से शुद्ध 'गौ' शब्दको १. न्या० कु० च०, पृ० ७५७ । पात० महा० - ६ । ११८४० वाक्यप० पु० टी० १|१३| तन्त्रवा०, पृ० २७८ तथा २८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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