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________________ २७० जैन न्याय ___तया स्फोटके संस्कारसे आपका क्या अभिप्राय है ? स्फोटविषयक ज्ञानका होना अथवा स्फोटके ऊपरसे आवरणका हटना ? यदि संस्कारसे मतलब आवरणके हट जानेसे है तो एक बार एक जगह आवरणके हट जानेपर सर्वदा सब पुरुषोंको स्फोटको अभिव्यक्तिका प्रसंग उपस्थित होगा; क्योंकि स्फोटको आपने नित्य व्यापक और एक माना है। यदि स्फोटका आवरण पूरा न हटकर एकदेशसे हटता है तो ऐसा माननेपर स्फोट सावयव ठहरता है। और सावयव होनेसे वह कार्य ठहरता है और कार्य होनेसे अनित्य ठहरता है। इस दोषके भयसे यदि स्फोटको एक जगह निरावरण होनेसे सर्वत्र निरावरण मानते हो तो सर्वत्र सर्वदा सब मनुष्योंको उसको उपलब्धि होनेका प्रसंग आता है। यदि संस्कारसे मतलब स्फोटविषयक ज्ञानसे है, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि जैसे वर्ण अर्थका ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही स्फोटका ज्ञान भी उत्पन्न नहीं कर सकते। ___ वैया०-पूर्व वर्गों के ज्ञानके संस्कारसे युक्त आत्माको अन्तिम वर्णके सुननेके ‘पश्चात् स्फोटकी अभिव्यक्ति होती है, अतः कोई दोष नहीं है । - जैन-तो फिर इस तरह तो पूर्ववर्णों के ज्ञान के संस्कारसे युक्त आत्माको अन्तिम वर्णके सुननेके पश्चात पदार्थका ज्ञान ही हो जायेगा तब स्फोटके माननेकी क्या आवश्यकता है ? चेतन आत्माके सिवाय अन्य किसी तत्त्वमें अर्थ प्रकाशनकी सामर्थ्य सम्भव नहीं है। अतः विशिष्ट शक्तिवाले उस चिदात्माका ही नाम स्फोट रखना हो तो रख लें। जिसमें अर्थ स्फुट होता है उसे स्फोट कहते हैं। अतः चिदात्माके सिवाय स्फोट नामका कोई तत्त्व नहीं है। _ 'वायु स्फोटकी अभिव्यक्ति करती है' यह कथन भी ठीक नहीं है। जैसे वायुओंसे शब्दकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती वैसे ही उनसे स्फोटकी अभिव्यक्ति भी नहीं हो सकतो, यदि वायु स्फोटकी अभिव्यक्ति करती है तो वर्णोंको कल्पना व्यर्थ हो जायेगी क्योंकि वर्षों से न तो स्फोटकी अभिव्यक्ति आप मानते हैं और न अर्थकी प्रतिपत्ति मानते हैं । तथा वर्णों की अथवा वायुओंकी उत्पत्ति से पहले यदि स्फोटका सद्भाव सिद्ध हो तो वर्ण अथवा वायुको स्फोटके अभिव्यंजक मानना उचित हो सकता है । 'किन्तु स्फोटका सद्भाव किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है अत: विचार करनेपर स्फोटका स्वरूप नहीं बनता, इसलिए स्फोटको पदार्थकी प्रतिपत्तिमें कारण नहीं मानना चाहिए। किन्तु गौ आदि शब्दोंको ही पदार्थको प्रतिपत्तिमें कारण मानना चाहिए। Jain Education International, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ...
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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