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जैन न्याय
उनसे पूछते हैं कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ग्रहण होता है अथवा मानस प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ग्रहण होता है ? इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ग्रहण नहीं हो सकता; क्योंकि प्रतिनियत देश और प्रतिनियत कालमें स्थित जिस पदार्थके साथ इन्द्रियका सम्बन्ध होता है उसे ही इन्द्रियप्रत्यक्ष जानता है । व्याप्ति तो समस्त देश और समस्त कालवी अर्थको लेकर होती है। अतः तीनों लोकोंमें रहनेवाले अतीत, अनागत और वर्तमान समस्त पदार्थोंका उपसंहार करनेसे ही व्याप्तिका ग्रहण हो सकता है, क्योंकि व्याप्तिका अर्थ है व्यापना अर्थात् समस्त व्याप्य व्यक्तियोंको व्याप्य रूपसे और समस्त व्यापक व्यक्तियोंको व्यापक रूपसे अपने अंकमें लेना। किन्तु समस्त व्याप्य और व्यापक व्यक्तियोंके साथ इन्द्रियका सम्बन्ध सम्भव नहीं है और न इन्द्रियोंमें उनका ग्रहण करनेकी सामर्थ्य ही है। इन्द्रिय तो वर्तमान नियत अर्थको ही ग्रहण कर सकती है। तब प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ज्ञान कैसे हो सकता है ?
नैयायिकोंका यह कहना भी कि-'प्रथम प्रत्यक्षके समय ही अग्निके सम्बन्धीके रूपमें धमकी प्रतीति होती है अतः धूम और अग्निके नियमका प्रतिभास भी उसी समय हो जाता है, ठीक नहीं है। क्योंकि रसोईघरमें धूमका प्रथम प्रत्यक्ष होनेपर धमकी प्रतीति रसोईघरके अन्दर स्थित नियत अग्निके सम्बन्धीके रूपमें होती है अथवा सब अग्नियोंके सम्बन्धीके रूपमें होती है ? अर्थात् 'यह धूम इस अग्निका है' ऐसी प्रतीति होती है या सर्वत्र धूम के होनेपर अग्नि होती है ऐसी प्रतीति होती है ? प्रथम पक्षमें प्रथम प्रत्यक्षके समय व्याप्तिकी प्रतिपत्ति कैसे हो सकती है; क्योंकि व्याप्ति तो सर्वोपसंहारवती होती है प्रतिनियत व्यक्तिमें व्याप्ति नहीं हुआ करती। दूसरे पक्षमें एक प्रत्यक्षकी तो बात ही क्या, सैकड़ों प्रत्यक्षोंसे भी व्याप्तिको नहीं जाना जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष सम्बद्ध और वर्तमान अर्थको ही विषय करता है। अतः वह जो कोई भी धूम है वह सब अग्निके होनेपर ही होता है' इस तरह सबको उपसंहार करके अविनाभाव नियमको जानने में असमर्थ है।
शायद कहा जाये कि अन्वय और व्यतिरेककी सहायतासे प्रत्यक्ष व्याप्तिको जान लेगा। किन्तु ऐसा कहना भी गलत है; क्योंकि हजारों बार अन्वय और व्यतिरेककी सहायता होनेपर भी जिस विषय में प्रत्यक्षमें प्रत्यक्षको प्रवृत्ति होती है वहीं पर वह व्यक्तिको जान सकता है न कि 'जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है और जहाँ अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं होता' इस प्रकार सर्वोपसंहार रूपसे व्याप्तिको जान सकता है। और जिस विषयमें प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति होती है केवल वहींके धूम और अग्निकी व्याप्तिको जानना व्यर्थ है; क्योंकि ध्याप्तिकी
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