________________
जैन न्याय
तीन सौ छत्तीस होते हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई पुरुष अनेक शब्दोंको सुनकर उन सबको जान लेता है यह बहुका ज्ञान है। कोई क्षयोपशमकी मन्दताके कारण उनमें से किसी एक ही शब्दको जानता है यह एक अथवा अल्पका ज्ञान है। कोई श्रोता एक-एक शब्दके अनेक भेद-प्रभेदोंको जान लेता है यह बहुविधका ज्ञान है । कोई उन अनेक शब्दों में से किसी एक शब्दके ही भेद-प्रभेदोंको जान पाता है यह एकविधका ज्ञान है । कोई शब्दको जल्दी जान लेता है यह क्षिप्रज्ञान है और कोई क्षयोपशमको मन्दता होनेसे देरमें जानता है यह अक्षिप्रज्ञान है। अथवा शीघ्रतासे गिरती हुई जलधाराके प्रवाहको जानना क्षिप्रज्ञान है और धीरे-धीरे चलते हए घोड़े वगैरहको जानना अक्षिप्रज्ञान है। किसी वस्तुके एकदेशको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिसृत ज्ञान है, जैसे हाथोको राँडको देखकर जलमें डूबे हुए हाथोको जान लेना। और पूरी वस्तुको देखकर उसे जानना निसृत है। बिना कहे अभिप्रायसे ही पूरी बातको जान लेना अनुक्त ज्ञान है और कहनेपर जानना उक्त ज्ञान है। प्रथम समयमें शब्द वगैरहका जैसा ज्ञान हो दूसरे समयमें भी वैसाका वैसा ही बना रहे, न घटे और न बढ़े, उसे ध्रुव ज्ञान कहते हैं। और कभी बहुका, कभी बहुविधका, कभी एकका और कभी एकविधका ज्ञान होना अध्रुव ज्ञान है अथवा चिरस्थायी पर्वत वगैरहके ज्ञानको ध्रुवज्ञान कहते हैं।
शंका-बहु और बहुविधौ क्या भेद है ?
उत्तर--बहुत व्यक्तियोंके जाननेको बहुज्ञान कहते हैं जैसे बहुत-सी गायोंको जानना। और बहुत जातियोंके जाननेको बहुविध ज्ञान कहते हैं जैसे खण्डी, मुण्डी, सांवली आदि अनेक जातियोंकी गायोंको जानना । तथा एक व्यक्तिको जानना एक ज्ञान है जैसे यह गौ है । और एक जातिको जानना एकविध है जैसे यह खण्डी गो है।
शंका--उक्त और निसृतमें क्या भेद है ?
१. श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अनिसृतके स्थानपर 'अनिश्रित' और अनुक्तके स्थानपर निश्चित अथवा असंदिग्ध मेद है। बिना लिंग ( चिह्न ) के स्वरूपसे ही जान लेना अनिश्रित है। और लिंगसे जानना जैसे सूडसे हाथीको जानना निश्रित है। संशयरहित जानना निश्चित अथवा असंदिग्धज्ञान है । और संशयात्मक जानना कि
जाने यह ऐसा ही है अथवा अन्य रूप है' अनिश्चित ज्ञान है। २. सर्वार्थ. और तत्त्वार्थवा०, सूत्र १-१६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org