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जैन-न्याय
चार्वाकका एक प्रमाण ११४, उसकी समोक्षा ११४, बौद्धसम्मत दो भेद ११५, उसकी समीक्षा ११५, नैयायिक और मीमांसक सम्मत प्रमाणभेद ११६, अर्थापत्ति नामक प्रमाणका विवेचन तथा अन्तर्भाव ११६, अनुमानमें अर्थापत्तिका अन्तर्भाव ११८, अभावका प्रत्यक्ष आदिमें अन्तर्भाव ११९।
इन्द्रियके भेद १२३, इन्द्रियोंके सम्बन्धमें नैयायिकोंके मतको समीक्षा १२३, इन्द्रियोंके सांख्यसम्मत आहंकारित्वकी समीक्षा १२४, अर्थ और प्रकाशके ज्ञानकारणत्वकी समीक्षा १२५, प्रकाशके ज्ञानकारणत्वकी समीक्षा १३० ।
मतिज्ञान अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष १३१, अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह १३२, धवलाके मतका विवेचन १३३, श्वे० आगमिक मान्यता १३४, मान्यताका सार १४३, दिगम्बरमान्यता १४४, दर्शन और अवग्रह १४४, अकलंकदेवके तत्वार्यवार्तिकसे १४५, दि० परम्परामें दर्शनके स्वरूप में भेद १४६, सिद्धसेनका मत १५०, ईहा आदिका स्वरूप १५३, मतिज्ञानके ३३६ भेद १५५, अनिसृत ज्ञान और अनुमानादिक १५७, बहु, बहुविध ज्ञानका समर्थन १५९।
__अवधिज्ञान १६०, अवधिज्ञानके भेदोंका विवेचन १६१, मनःपर्ययज्ञान १६२, मनःपर्ययके लक्षणके सम्बन्धमें श्वे. मान्यता १६२, मनःपर्ययके भेद १६२ ऋजुमति, विपुलमतिका विवेचन १६३, सकलप्रत्यक्ष १६४, सर्वज्ञत्वसमीक्षा १६५, सर्वज्ञताके विषयमें कुमारिलका पूर्वपक्ष १६५, जैनोंका उत्तरपक्ष-सर्वज्ञताका समर्थन१६८, सर्वज्ञताके समर्थन में विद्यानन्द स्वामीकी सूक्तियाँ १६८, सर्वज्ञताको लेकर विविध शंकाएं और उनका समाधान १७६, ईश्वरवादसमीक्षा १७७ पूर्वपक्ष ( सृष्टिकर्तृत्वके समर्थन-द्वारा ईश्वरकी सर्वज्ञताका समर्थन १७७, विविध युक्तियोंसे सृष्टिकर्तृत्वका समर्थन १७८ ), उत्तरपक्ष १८० ( जैनोंके द्वारा सृष्टिकर्तृत्वपरक युक्तियोंका खण्डन १८१), ईश्वरके स्वरूपके विषयमें सांख्यका पूर्वपक्ष १८८, जैनोंका उत्तरपक्ष १९०। परोक्ष प्रमारण
१९३-२६४ परोक्षका लक्षण और उसके भेद १९३, स्मरण अथवा स्मृति १९३, स्मृतिको प्रमाण न माननेवाले बौद्ध आदिका पूर्वपक्ष १९३, जैनोंका उत्तरपक्ष स्मृतिके प्रामाण्यका समर्थन १९५, प्रत्यभिज्ञान प्रमाण १९६, अणिकवादी बौद्धोंके द्वारा प्रत्यभिज्ञानके प्रामाण्यका निरसन १९७, जैनोंके द्वारा उसके प्रामाण्यका समर्थन १९८, उपमान प्रमाणवादी मीमांसकका पूर्वपक्ष २०१, जैनोंके द्वारा उपमानका सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव २०३, उपमान प्रमाणवादी नैयायिकका पूर्वपक्ष २०४, जैनोंके द्वारा उसका भी सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव २०५, तर्कप्रमाण
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