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विषय सूची
ख्यातिवाद ८१ (योगाचार विपरोतज्ञानको आत्मख्याति मानते हैं। क्योंकि वे बाह्य अर्थको ज्ञानका विषय नहीं मानते अत: चाँदोका बाह्यरूपसे बोध नहीं होना चाहिए आदि ८२ ), ६अनिर्वचनोयार्थख्याति ८२ (अद्वैतवादी विपर्ययज्ञानमें अनिर्वचनीयायख्याति मानते हैं किन्तु जो प्रतिभासमान है उसे अनिर्वचनीय नहीं कहा जा सकता ८३ ), ७अलौकिकार्थ ख्याति ८३ (जिसके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्थको ख्यातिका नाम अलौकिकार्थख्याति है । यहाँ अर्थके अलोकिकपनेसे क्या अभिप्राय है ८४ ), ८विपरीतार्थख्यातिवाद पक्षका समर्थन ८४ ।।
साकारज्ञानवाद की समीक्षा ८६ पूर्वपक्ष ( बौद्धोंका कहना है कि ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है इसलिए वह अर्थके आकार होता है। यह नियम है जो जिसका ग्राहक होता है वह उसके आकार होता है ८७), उत्तरपक्ष ८८ ( जैनोंका कहना है कि ज्ञान और अर्थका तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है योग्यतारूप सम्बन्ध है, साकार ज्ञानको किसीको भी प्रतीति नहीं होतो अतः ज्ञान निराकार है ८८), ज्ञान स्वसंवेदी है ९१, परोक्ष ज्ञानवाद ९१ पूर्वपक्ष ( मीमांसक ज्ञानको परोक्ष मानते हैं । उनके मतानुसार अर्यापत्तिसे ज्ञानको प्रतोति होती है ९१ ) उत्तरपक्ष ९२ ( यदि ज्ञानको अनुमेय माना जायेगा तो मैं अर्थको जानता हूँ ऐसी प्रतीति नहीं हो सकेगी ९५) ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद ९५ पूर्वपक्ष ( नैयायिक ज्ञानको स्वसंविदित नहीं मानता उसके मतसे ज्ञानको दूसरा ज्ञान जानता है ९५, उसके मतसे स्वयं अपनेमें हो क्रियाके होने में विरोध है ९६ ), उत्तरपक्ष ९६ ( जब आप ईश्वरज्ञानको स्वसंविदित मानते हैं तो हम लोगोंके ज्ञानको स्वसंविदित क्यों नहीं मानते ९६, तथा स्वात्मामें ज्ञानको किस क्रियाका विरोध है ९७ ), ज्ञानका अचेतनत्व ९९ पूर्वपक्ष ( सांख्यमत से ज्ञान अचेतन है वह प्रधानका परिणाम है । अचेतनज्ञान कैसे जानता है इसका स्पष्टीकरण ९९), उत्तर पक्ष ९९ (जैनोंका कहना है कि ज्ञान जड़का धर्म नहीं, आत्माका धर्म है ९९, सांख्यको प्रक्रियाका खण्डन १००), प्रामाण्यविचार १०२ पूर्वपक्ष ( मोमांसक स्वतःप्रामाण्यवादी है, किन्तु अप्रामाण्यकी उत्पत्ति दोषोंसे होनेके कारण परतः मानता है १०२), उत्तरपक्ष १०४ ( जैनोंके द्वारा स्वतःरामाण्यवाद और परतः अप्रामाण्यवादको समीक्षा । जैसे अप्रामाण्यको उत्पत्ति दोषोंसे होती है वैसे ही प्रामाण्यको उत्पत्ति गुणोंसे होती है १०७ ) । प्रमाणके भेद
११०-१६२ जैनसम्मत दो भेद ११०, प्रमाणको चर्चा दार्शनिक युगको देन ११०, दार्शनिक युगसे पहले ज्ञानके पाँच भेद ११०, अकलंक देवके द्वारा प्रमाणविषयक गुत्थियोंका सुलझाव ११२, सभी जैनाचार्योंके द्वारा उसको मान्यता ११३,
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